श्री बंसी कौल ने इप्टा रायगढ़ द्वारा आयोजित आठवें शरदचंद्र वैरागकर स्मृति रंगकर्मी सम्मान के अवसर पर कहा कि इस शहर में अवाॅर्ड देने की जो सामूहिक अभिव्यक्ति दिखाई दी है, वह पूरे भारत में मुझे कहीं नहीं दिखाई दी। बंसीजी ने शहर की सामूहिक भावना और उसकी रंगमंच पर हुई उत्साहपूर्ण अभिव्यक्ति पर जो वक्तव्य दिया है, उसका मूल शहर की परम्परा, इसकी संस्कृति और यहाँ की जड़ों में मौजूद है।

रायगढ़ एक ऐसा कस्बे से विकसित हुआ शहर है, जहाँ अभी भी परस्पर संबंध राजनीति और सामाजिक विषमता से ज़्यादा प्रभावित नहीं हुए हैं। लोग एकदूसरे के रचनात्मक कार्यों को देखते हैं, पहचानते हैं और अक्सर खुलकर आमने सामने खरी-खोटी भी सुना देते हैं। यहाँ लोगों में परस्पर संबंध अभी भी अनौपचारिक बचे हुए हैं। यही कारण है कि रायगढ़ की सामाजिक-सांस्कृतिक संस्थाएँ परस्पर सम्पर्क होते ही एकदूसरे के सहयोग के लिए तत्पर हो जाती हैं। समय और थोड़ा-बहुत धन खर्च करने में वे कोताही नहीं बरततीं।

थियेटर के लिए यह बात मुफीद बैठती है। रायगढ़ में पहले अनेक छोटी मोटी नाट्यसंस्थाएँ सक्रिय थीं मगर धीरे-धीरे इप्टा को छोड़कर अन्य रंगसंस्थाओं की सक्रियता समाप्तप्राय होती चली गईं। इप्टा की नियमित गतिविधियों में बच्चों के लिए ग्रीष्मकालीन कार्यशाला, वर्ष में कम से कम एक नए नाटक की तैयारी एवं प्रस्तुति, जुलाई-अगस्त में लघु नाट्य समारोह, दिसम्बर में होने वाला राष्ट्रीय नाट्योत्सव और देशभर में किये जाने वाले मंचन – के कारण इप्टा को शहर में प्यार और आदर से देखा जाता है।

इप्टा रायगढ़ ने 1994 से अपनी दूसरी पारी खेलते हुए जन सहयोग से ही अपनी रंग-सक्रियता की शुरुआत की। ‘चंदा करना’ इप्टा की फितरत में शामिल है। इसकी अभिजात्य वर्ग में हँसी भी उड़ाई जाती है। मगर दर-दर जाकर आर्थिक सहयोग लेने के अनेक सामाजिक लाभ हैं। पहली बात, नए-पुराने लोगों से सम्पर्क होता है, उनसे न केवल अपने नाटकों के बारे में संक्षिप्त चर्चा हो जाती है, बल्कि परिचित होने पर तमाम आत्मीय सवाल-जवाब भी हो जाते हैं। पिछले नाटकों का फीडबैक भी मिल जाता है। विभिन्न दर्शकों की रूची, उनके सामाजिक सरोकारों से भी इप्टा के सदस्य रूबरू होते हैं। मज़ेदार बात यह है कि इप्टा के सदस्य अपने ‘चंदा अभियान’ में लगभग एक महीने तक सामूहिक रूप में निकलते हैं। इसमें एक तो उनकी सांगठनिक सामूहिकता भी गहरी होती है और दूसरा, एक साथ अनेक लोगों से सम्प्रेषण के अनुभवों से, कुछ लोगों के उत्साहवर्द्धक बोलों से थियेटर के प्रति प्रतिबद्धता मजबूत होती है।

सम्मान प्रकट करने में सामूहिकता की अभिव्यक्ति का इप्टा का आनुभविक इतिहास इसप्रकार है कि सन् 2003 में जब हबीब तनवीर पर केन्द्रित पाँच दिनों का नाट्योत्सव आयोजित हुआ, उस समय हबीब साहेब से प्रभावित अनेक रंगसंस्थाओं एवं सांस्कृतिक संस्थाओं ने स्वयमेव आकर मंच पर उनका सम्मान करने की इच्छा व्यक्त की, एक-दो संस्थाओं ने हबीब साहेब को अपने गाँव में किसी कार्यक्रम में आमंत्रित करने के लिए अनुमति चाही। सभी ने अपने-अपने तरीके से सम्मान किया। यह चाक्षुष अनुभव हमारे स्मृति-पटल पर हमेशा के लिए अंकित हो गया। शरदचंद्र वैरागकर स्मृति रंगकर्मी सम्मान जब 2010 में आरम्भ हुआ, उस समय तो यह अनुभव काम नहीं आया मगर चार वर्षों के बाद जब सीमा बिस्वास को सम्मान प्रदान किया गया, उस समय उनकी लोकप्रियता देखते हुए चर्चा की गई और बहुत उत्साह से लगभग बीस संस्थाओं और व्यक्तियों ने उन्हें स्मृति चिन्ह देकर सम्मानित किया। वाकई एक व्यक्ति या एक संस्था के द्वारा सम्मानित करने की बजाय जब उसमें अलग-अलग विचारों, हितों, वर्गों के लोग और संस्थाएँ जुड़ती हैं, भले ही कुछ ही घंटों के लिए क्यों न हो, वे घंटे एक मानसिक ताक़त से आलोड़ित हो जाते हैं और उनकी स्मृति चिरकाल तक बनी रहती है। यह अनुभव थियेटर के सामूहिक कर्म में मिले आनंद से मिलता जुलता है। उन क्षणों में सबकी साँसों से एक सुंदर दुनिया निर्मित हो जाती है।

जैसा कि बंसी दादा ने कहा था कि आजकल सामूहिकता के मायने बदलते जा रहे हैं। सामूहिकता रचनात्मक कर्म की सामूहिकता की की बजाय सामूहिक बलात्कार या सामूहिक हिंसा के रूप में बदलती जा रही है, ऐसे ‘खतरनाक’ समय में सामूहिकता में सम्पन्न हुए सम्मान कार्यक्रम वाकई बहुत ज़रूरी लग रहे हैं।

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