समय की रफ़्तार में मशगूल इंसान अपनी रौ में बह रहा है, उस बहाव में जीवन जीने की ललक, कुछ कर गुज़रने का भाव और ज़िंदादिल बने रहने की कोशिश शामिल है. जब हम थोड़ा पीछे मुड़कर उन पलों को याद करते हैं जो हमारे लिए बहुमूल्य पलों के रूप में दर्ज़ हो जाते हैं तो लगता है यह तो कल की ही बात थी. जी यही भाव दिलो-दिमाग में चल रहा है जब से बंसी दादा की तबियत के बारे में पता चला है. पूरा विश्वास है वे स्वस्थ होकर एक बार फिर से हम सबके बीच थियेटर को जीयेंगे. उनकी बातें जो वे हम लोगों के बीच आकर किए थे आइए आप भी पढ़ें.

आठवें शरदचंद्र वैरागकर सम्मान समारोह में बंसी कौल

यह अवार्ड नहीं है इसमें जो एक तरह की सामूहिकता है जिसके लिये मैं अपने काम में अकसर कोशिश करता रहा हूँ मैं सिर्फ विदूषक पर काम नहीं कर रहा था या कर रहा हूँ मेरा मूल उद्देश्य दरअसल सामूहिकता पर ही था ये अलग बात है कि जब भी मेरे काम की चर्चा हुई हर व्यक्त्ति ने उसको अपनी तरह से समझा और बताया किसी ने हंसी कहा, किसी ने उल्हास कहा किसी ने अवसर्ड्पना/बेतुकापन कहा जिस वक्त जिसे जो लगा वह कहा. लेकिन मैं जो दरअसल इतने वर्षों से चाह रहा था जो थियेटर अकसर करता आ रहा या उसे भूलना नहीं चाहिये थियेटर को वो एक तरह से सामूहिकता का प्रतिनिधित्व करता है और वह सामूहिकता आज यहाँ अवार्ड में दिखी जो कि बहुत ज़रूरी है.

आठवें शरदचंद्र वैरागकर सम्मान समारोह में बंसी कौल

थियेटर एक ऐसी कला है जिसमें सामूहिकता बहुर ज़रूरी है आप पेंटिंग अकेले कर सकते हैं, आप कविता अकेले रच सकते हैं, आप कहानी अकेले रच सकते हैं, यहाँ तक कि आप उदास अकेले हो सकते हैं, यहाँ तक कि अकेले गुनगुना सकते हैं, बड़बड़ा सकते हैं लेकिन आप अकेले हँस नहीं सकते और इसीलिये हँसने को भी सामूहिकता की ज़रूरत होती है और कोई भी समाज जिसे आप ज़िंदा समाज कहेंगे या जिस समाज में ज़िंदादिली है उस ज़िंदादिल समाज में सामूहिकता ज़िंदा रहती है और जहाँ सामूहिकता टूटती है तो यह मान लेना चाहिये कि कुछ गड़बड़ है और हम ऐसे दौर से गुज़र रहे हैं जहाँ सामूहिकता टूट रही है या सामूहिकता दूसरा रूप ले रही है जहाँ सामूहिकता एक तरह से विचार का रूप थी जहाँ सामूहिकता सोचने का काम करती थी जहाँ सामूहिकता बुद्धिमानी, विबेक का काम करती थी वो सामूहिकता अब या तो उस जुलूस में बदल रही है उस जुलूस में हिंसा है या यह वो सामूहिकता बनती जा रही है जो कर्मकांडी सामूहिकता है. दरअसल हम सबको यह देखना ज़रूरी है कि हम कौन सी सामूहिकता की बात करते हैं और कौन सी सामूहिकता को बचाना ज़रूरी है और वो सामूहिकता संभवतः थियेटर में ही है. इसीलिये अगर सामूहिकता को बचाना है तो आप को थियेटर को बचाना ज़रूरी होगा कि अगर थियेटर नहीं बचेगा तो आप दूसरी कोई बात भी नहीं कर पायेंगे. थियेटर अकेली एक ऐसी कला है जहाँ आप से यह प्रश्न नहीं किया जाता है कि आप कौन सी जाति से हैं यह अकेली ऐसी कला है जहाँ आपसे यह नहीं पूछा जाता कि आप कौन हैं आप कहाँ से आये हैं दरअसल यह सारे समाज का प्रतिनिधित्व करती है. यहाँ कपड़ा बुनने वाले से लेकर पहनने वाले तक का समाज एक ही जगह पर रहता है लेकिन पिछले कई वर्षों से देख रहा हूँ कि यह सामूहिकता बिलकुल ही खतम होती जा रही है. दरअसल सामूहिकता की स्थापना का अन्श टूटता जा रहा है. हम जिस विस्थापना की बात करते हैं तो हमारा विस्थापना से मतलब होता है एक शहर से दूसरे शहर में आप दर-बदर हो गये हों या आपको एक शहर से दूसरे में जाना पड़ रहा है दरअसल हम यह कभी नहीं सोचते हैं कि हम सामूहिकता से विस्थापित हो रहे हैं जब हम सामूहिकता से विस्थापित होते हैं तो हम खुद से विस्थापित हो रहे होते हैं, दाहिना हाथ बायें हाथ से विस्थापित हो रहा है हम अपने विचारों से विस्थापित हो रहे हैं और अगर इस विस्थापना को रोकना है तो आप को सामूहिकता को बचाना ज़रूरी है और अगर आप को सामूहिकता को बचाना है तो आप को थियेटर करना ज़रूरी है.

आज की सामूहिकता देख कर मैं बहुत ही खुश हूँ और अगर यह सामूहिकता बनी रही, थियेटर के अलावा अलग-अलग तरह के लोग यहाँ जमा हुए हैं अलग-अलग तरह का समाज जमा हुआ है यह मेरे लिये एक अलग तरह का अनुभव है. दूसरा मैं आठले साहब और श्रीमती आठले से एक बात कहूंगा कि सारे अवार्ड जितने भी देने हो वो पचास के ऊपर मत दिया करें , पचास की उम्र तक ही दिया करें उसकी कुछ वजहें हैं क्यों कि पचास के बाद जब आप अवार्ड देने लगते हैं और बहुत सारी तस्वीरें आप बाहर लगाते हैं आप अवार्ड देने वाले को उम्र का एहसास कराने लगते हैं. इसमें मुझे लगाता है कि आप में एक शरारती तत्व, शरारतीपन जो शरारत सोचता है और ऐसा मत कीजियेगा क्योंकि कभी कभी जो पचास के ऊपर होते हैं वो ज्यादा शरारती होते हैं और मैं यह कहता भी हूँ और होना भी चाहिये कि हमारे समाज में लोगों को अवार्ड्स देने हैं तो मुझे लगता है चालीस-पैंतालीस-पचास तक दे देना चाहिये ताकि वो आगे काम कर सकें इस इंतज़ार में न रहें कि अगला अवार्ड मुझे मिलने वाला है . नहीं तो क्या होता है कि पचास के बाद अवार्ड्स मिलने शुरु हो जाते हैं तो आप सुबह उठते हैं अख़बार पढ़ते हैं , फोन देखने लगते हैं कि कहीं मुझे कहीं कोई अवार्ड तो नहीं मिला है. और वो मुझे लगता है कि आप के काम को रोक देता है मैंने इन पर गुस्सा इसीलिये किया था कि पहले दे देते तो मैं शायद और काम करता लेकिन फिर भी मैं करता रहूंगा. तस्वीरें ज्यादा न लगाया करें इसलिये कि अचानक से आप अपने पीछे देखते हैं आपको लगने लगता है आप इतने बूढ़े हो गये हैं और मैं दरअसल बूढ़ा नहीं होना चाहता हूँ और इसलिये नहीं होना चाहता हूँ कि अगर मैं थियेटर करता रहूंगा तो मैं शायद बूढ़ा नहीं होऊंगा और थियेटर की शायद यह ख़ासियत भी है कि वो आपको बूढ़ा नहीं होने देता है. वहज यह है कि आपके साथ जो लोग जुड़े होते हैं वो सब आपके हमउम्र तो होते नहीं हैं वो दस साल की उम्र से लेकर साठ साल तक के लोग आपके साथ जुड़े होते हैं इसीलिये आपको कभी भी यह एहसास नहीं होता कि आपकी उम्र क्या है. आप दस साल के बच्चे के साथ बैठते हैं तो लगता है आप दस साल के हैं, पन्द्रह साल वाले बच्चे के साथ बैठते हैं तो आपको लगता है आप पन्द्रह साल के हैं, आप बीस साल वाले मनुष्य के साथ बैठते हैं तो आपको लगता है आप बीस साल के हैं तो ज़ाहिर है कि आप बहुत सारी ज़िन्दगियां और उम्र थियेटर में जीते हैं आप दस साल से लेकर सौ साल तक सारी उम्र एक साथ जीते हैं और यह संभव नहीं है दूसरी जगह. आप सुबह आते हैं तो दस साल के लगते हैं, दोपहर को बारह साल के लगते हैं और शाम होते-होते हो सकता है आप फिर दस साल के लगने लगे हों तो यह शायद थियेटर की ख़ासियत है और इसको बचाये रखना ज़रूरी है.

मैं थियेटर इसलिये भी नहीं करना चाहता हूँ कि साहब मेरे थियेटर से कोई बहुत ज्यादा क्रांति हो जायेगी, अचानक मेरा नाटक देख लोग बाहर निकलेंगे और बहुत बड़ा जुलूस निकालेंगे, सरकार गिरा देंगे ऐसा संभव भी नहीं और मुझे लगता है गलतफहमी में रहना भी नहीं चाहिये. मुझे लगता है अगर हम उस छोटे से समाज को भी बचाये रखें , उस छोटी सी सामूहिकता को बचाये रखें तो आप ने बहुत बड़ा काम कर लिया है. जब आप सोचते हैं कि आप बहुत बड़ा काम करने जा रहे हैं तो दरअसल उस सारे छोटे काम को नकार देते हैं उस छोटी सामूहिकता को खत्म कर देते हैं जिसका होना ज़रूरी है बड़ी सामूहिकता के लिये. मुझे लगता है थियेटर को इस बात से दुखी नहीं होना चाहिये कि साहब अब हमारे पास तो एक सौ-डेढ़ सौ लोग ही देखने के लिये आते हैं और टेलीविजन का जो सीरियल है तो डेढ़ सौ करोड़ देखता है ज़ाहिर है कि हम जर्सी गाय तो हैं नहीं जो ज्यादा दूध देंगे, हम अपने आप को बकरी ही मान लें तो ठीक है और देखिये! किसी भी समाज में किसी चीज़ का महत्व खत्म नहीं होता बकरी का भी उतना ही महत्व है जितना जर्सी गाय का , दूध दोनों ही देते हैं और ज़ाहिर अगर आप दोनों ही दूध देते हैं और नहीं भी देते हैं तो उसका भी महत्व होता है इसीलिये महत्व को बचाये रखना ज़रूरी है ना कि यह मान कर इस बात से दुखी होना कि हमारे दर्शक नहीं आते हैं और अकसर एक सवाल पत्रकारों की तरफ से पूछा जाता है कि क्यों साहब आपको लगता है कि थियेटर मरने वाला है यह पहला प्रश्न होता है. दूसरा प्रश्न होता है कि आप को लगता है कि थियेटर में दर्शक आहिस्ता-आहिस्ता खत्म हो रहें हैं, इस तरह के पन्द्रह-बीस सवाल पूछे जाते हैं और मैं यह पन्द्रह सवाल सुनना भी नहीं चाहता हूँ अगर मुझे थियेटर में रहना है और अगर आप यह पन्द्रह सवाल सुनेंगे और इनका जवाब देते रहेंगे तो शायद आप बहुत ही परेशान होंगे. अब मैं अपनी बात यहीं खत्म करता हूँ, धन्यवाद आप को, इप्टा को, इप्टा के लोगों को, इप्टा के दोस्तों को. आपने जो इतना बढ़िया माहौल पैदा किया है उस माहौल को बनाये रखें

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