नादिरा बब्बर से निर्मला डोसी की बातचीत

सन् 2005 में उनके अब्बा सज्जाद ज़हीर साहब की जन्म शताब्दी पर तीन दिन का भव्य कार्यक्रम किया गया था। दूर-दूर से प्रबुद्ध लोग जुटे थे। कार्यक्रम का समापन ‘रोशनाई’ नाट्य-प्रस्तुति से हुआ जो नादिरा जी की तरफ से अपने मरहूम अब्बा को श्रद्धांजलि था। नाटक उनके कई देखे, किंतु उस दिन की अद्भुत प्रस्तुति ने समूचे सभागार को मंत्रबद्ध कर दिया था। हमारी बातचीत वहीं से प्रारम्भ हुई।

ज़हीर साहब के शताब्दी वर्ष पर जो नाटक खेला गया नादिराजी! उस दिन पूरा सभागार अश्-अश् कर उठा था। कमाल की प्रस्तुति थी।

मेरे पिता कम्युनिस्ट व मार्कसिस्ट थे। 1905 में उनका जन्म हुआ था। 2005 में हमने उनके सौवाँ जन्मदिन धूमधाम से मनाने की कोशिश की थी। दिक्कतें बेशुमार थीं, फिर भी काफी हद तक कार्यक्रम कामयाब हुआ। तीन दिन का विविध आयामी कार्यक्रम था। उनकी कहानियाँ, सेमिनार, मुशायरा, फिर नाटक और फिर बाहर से आए लोगों को देखना भी था। नाटक के रिहर्सल का तो समय ही नहीं मिला था। अंततः मैंने राज साहब से कहा – प्लीज़ 2-3 रिहर्सल आप ले लो, तो उन्होंने लिये। हाँ, यह सही बात है कि नाटक उम्मीद से ज़्यादा अच्छा हुआ। लोगों ने बहुत पसंद किया। विषय मेरे अब्बा का समूचा जीवनवृत्त ही था और उनका किरदार जिसने निभाया, उनका नाम है शुभ्रज्योति बराट। बड़ा सम्मान है उसका, बहुत काम करता है।

कई नाटक आपने लिखे हैं तो उसकी वजह क्या हिंदी में मनचाहे नाटक नहीं मिल पाना है?

बिल्कुल… हिंदी में अच्छे नाटक लिखे ही नहीं जा रहे, जबकि खेले बराबर जा रहे हैं। अब यह कमी किस तरह पूरी हो! विदेशी नाटकों का अनुवाद करो तो यहाँ-वहाँ से तोड़ो-मरोड़ों, तो भी वह बात बनती नहीं, जो बात अपनी भाषा तथा अपने देश के परिवेश की कहानियों में होती है, विदेशी कहानियों को मंचन के अनुसार रूपान्तरित करें, उनमें वो संवेदनशीलता आ ही नहीं पाती, जो किसी कला-प्रस्तुति की मुख्य ज़रूरत होती है। अपने देश की बात ही और होती है। विदेशी कहानियों पर नाटक बनाने में कोई बुराई नहीं है किन्तु मुझे इससे संतोष नहीं हो पाता इस कारण ही मैंने अपने नाटक खुद लिखने शुरु किये।

कब से लिखना शुरु किया और निर्देशन भी करना?

हाँ, 1994-95 से लिखना शुरु किया था। अब तक कुल ग्यारह नाटक लिख चुकी हूँ। जिनमें दो का कथ्य, किसी कहानी की प्रेरणा से लिया बाकी सभी पूरी तरह से मौलिक रचनाएँ हैं। फिर समय की बात करूँ, तो औरत के नसीब में घर की देखभाल तो अनिवार्य रूप से लिखी ही होती है। उसमें कोताही वो चाहे तो भी नहीं कर सकती। घर के किसी भी सदस्य का असंतोष स्वयं उसे अपराध बोध से ग्रस्त कर देता है। वो तो हमें पहले देखना ही है। मैं अक्सर कहा करती हूँ कि भई बीवियों के कोई बीवियाँ नहीं होतीं। लिहाज़ा सब उन्हें ही देखना है घर भी और बाहर भी। परेशानियाँ साथ चलती रहती हैं। घर में कभी दूध खत्म हो गया तो ‘‘ममा! कुछ तो सोचो, तीन दिन से सिर्फ सब्जियाँ ही खिलाई जा रही हैं’’ या ‘‘मोजे ही नहीं मिल रहे हैं।’’ – ये तमाम रोज़मर्रा की छोटी-छोटी बातें हैं जिनसे निपटना ज़रूरी है और निपटना भी चाहिए। फिर घर में रहने वाला स्टाफ, ऑफिस का स्टाफ, थियेटर ग्रुप के लोग – सबको साथ लेकर चलना, उनसे काम लेना, इन सब के लिए भी पूरा समय चाहिए, पूरी कुशलता भी। संस्था बनाना आसान था किंतु उसे चलाना बेहद मुश्किल।

वो तो सही बात है। ‘एकजुट’ कब से है?

सन् 81 से। तब से अब तक कितने लोग आए, कितने चले गए। कुछ लड़ कर गए, बदतमीजी करके भी गए। कुछ शुक्रगुजार होकर गए जो आज भी मिलते हैं तो उनकी आँखों में श्रद्धा व आदर पढ़ा जा सकता है। फिर टूरिंग बहुत करना होता है। बाहर नाट्य मंचन इतना होने लगा कि बस बैग तैयार ही रखो। मैंने नहीं सोचा था तब कि इतना काम बढ़ जाएगा।

बरगद लगाएंगे तो उसका धर्म है फैलना, वो तो फैलेगा ही…

अब देखिए, हम यहाँ से 29 मई को जा रहे हैं। वापसी 17-18 जून तक होगी। कुल 20 दिन का टूर है। पटियाला, चंडीगढ़, देहरादून, शिमला, पालमपुर, एक छोटा श्रीनगर देहरादून के पास है वहाँ, सब जगह जा रहे हैं। सारा कार्यक्रम, शो की तारीखें सब तय हो चुकी हैं।

कौन सा नाटक कर रहे हैं?

‘बॉम्बे मेरी जान’। यह मेरा लेटेस्ट नाटक है। पिछले वर्ष टाटा में पहला शो किया था। तब नहीं सोचा था कि यह नाटक ऐसा बन जाएगा, जो लोगों की संवेदना को छू लेगा। लिखने के वक्त विचार ज़रूर आया था।

विषय क्या है इसका?

विषय… देखिये, मुंबई स्वप्ननगरी है। यहाँ प्रतिदिन जगह-जगह से लोग आते हैं। आँखों में सपने लेकर। एक छोटे से कमरे में 3-4 लोग साथ रहते हैं। झगड़े, उनकी आपस की बातें, छोटे-छोटे धोखे, उनकी लड़ाइयाँ, तन्हाइयाँ, निराशा, थोड़ी-सी खुशियाँ, थोड़े से पैसे, कभी ज़्यादा पैसे, मुट्ठीभर खाना…। मुझे सब पता है कैसा जीवन हो सकता है इनका… यही सब…।

आपको सब कैसे पता है?

मेरे साथ कितने लोग काम करते हैं घर में, ऑफिस में, फिर रंग-समूह में। सबकी बातें, उनकी हँसी और हँसी के पीछे छुपा दर्द। वे हमेशा डर के साए में जीते हैं। काम की आस में इधर उधर भागते हैं, एक दूसरे से चिढ़ते हैं पर मुश्किल वक्त में आपस में संभालते भी है। मोहब्बत भी करते हैं और नफरत भी।

बड़ा दिलचस्प विषय है?

हाँ… मुझे भी अंदाज़ा नहीं था कि यह नाटक इस तरह बनेगा। अब जब पीछे मुड़कर देखती हूँ तो मुझे लगता है कि यह मेरे बेहतरीन नाटकों में से है।

ज़रूर होगा…

इसमें हास्य भी है पर बड़ा सधा हुआ और दर्द के लमहे भी हैं। मैंने इसमें किसी नामचीन अभिनेता को नहीं लिया जो स्टार बन चुका हो। उनकी तारीखें नहीं मिलतीं, जो मुझे गवारा नहीं। ‘एकजुट’ के बच्चों ने ही इसमें काम किया है और पूरी जान लगाकर किया है। हमारे यहाँ जो आपस में अपनापन है उसकी वजह से लोग वर्षों से हमसे जुड़े हैं। एक हनीफ हैं वो 22 वर्षों से है, एक अंकुर है जो ग्यारह वर्षों से है और भी पुराने लोग हैं।

कौन सा नाटक आपके दिल के ज़्यादा करीब है?

एक नाटक है ‘सुमन और सना’, वो मेरे दिल के बहुत करीब है।

अच्छा, जिसका जन्म बहुत कशमकश के बाद हुआ और जैसे ही शो हुआ कमाल हो गया हो?

हर एक नाटक का जन्म गहरी कशमकश के बाद ही होता है। उसका भी वैसा ही था, किंतु कमाल कोई नहीं हुआ। बल्कि बदकिस्मती से वो चल नहीं पाया। वजह शायद यह रही हो कि इंसान सच्चाई को करीब से देखना नहीं चाहता।

विषय क्या था उसका?

एक बच्ची है, जो पहले सना रहती है फिर सुमन बन जाती है। कश्मीर में मज़हबी नफरतों की वजह से कश्मीरी पंड़ितों का बुरा हाल हुआ था… बस यही विषय है। धार्मिक नफरतें रोकी नहीं गईं तो तबाही आ जाएगी। एक बार के विभाजन के घाव तो अभी भरे नहीं और फिर से… अल्पसंख्यक डर-डर के जिएंगे, आतंक फैलेगा जिसका कोई अंत नहीं है। मुसलमान भी इसी देश के हैं। इस सच को नहीं स्वीकारेंगे, उन्हें घर नहीं बनाने देंगे, उनके बच्चे स्कूल नहीं जाएंगे और उनकी आर्थिक बदहाली का तो कहना ही क्या? फिर ज़हालत इतनी कि पूछिये मत… और इसी वजह से वे कट्टरपन में अपनी सुरक्षा ढूँढ़ते हैं। टोपी पहन लेते हैं। आज से पच्चीस साल पहले बुरके-टोपियाँ-हिजाब कहाँ था इतना? अब कुछ ज़्यादा ही हो गया है। हाँ, पहनते थे पर खास-खास जगहों पर। अब कुछ ज़्यादा ही हो गया है। औरत ने बुरका या हिजाब नहीं पहना तो उसे महसूस करवाया जाएगा कि वो बदमाश औरत है और वो भी नौजवानों के द्वारा। युवा लड़के जब कट्टरपन की बात करते हैं तो बड़ी घबराहट होती है। अब इनको सिखाना शुरु करें भी तो कहाँ से? और ये कौन से सुनने वाले हैं? वो भी छोड़िये, सोमवार की रात कितने लोग सिद्धि विनायक भागते हैं! मुंबई में इस तरह दुर्गा जयंती भी पहले कहाँ होती थी! छठ पूजा भी नहीं। कब आती, कब चली जाती, पता तक नहीं चलता था। हाँ, गणपति उत्सव हमेशा से धूमधाम से हुआ करता था। गौरतलब यह कि वो किसी धार्मिक भावना के तहत नहीं बल्कि स्वतंत्रता की भावना के कारण सार्वजनिक रूप से शुरु किया गया था। हम जा कहाँ रहे हैं कुछ समझ में नहीं आता…।

हिंदी रंगमंच के हालातों पर कुछ कहें…

हालात तो सुधरे हैं और भी बेहतर हो सकते थे यदि हमारी सरकार रंगमंच पर थोड़ा सा ध्यान दे देती। हमारे यहाँ कोई सांस्कृतिक नीतियाँ नहीं हैं, कोई निर्देश नहीं हैं, कोई प्रावधान नहीं है। बड़ी मुश्किल से थोड़ा सा पैसा मिलता है, वो इतना कम होता है कि सही जगह पहुँच ही नहीं पाता। छोटे-छोटे प्रेक्षागृह बनने चाहिए। 100-150 सीटों वाले, पृथ्वी थियेटर जैसे। जहाँ कम खर्च में नाट्य मंचन हो सके। नई-नई प्रतिभाएँ आती हैं। संस्था बनाकर काम करने की शुरुआत करना चाहती हैं, किंतु तीस हजार का बड़ा हॉल और पचास हजार विज्ञापन पर खर्च करके वे किस तरह नाटक करेंगे? उनकी परिकल्पनाएँ वहीं दम तोड़ देती हैं। सरकार को अखबार वालों के साथ भी शर्तें रखनी चाहिए कि रंगमंच या अन्य कलाओं के विज्ञापन मुफ्त में करें या फिर कम लागत में करें। खर्च कम हो, तभी उनके पाँव टिकेंगे। भारी खर्च करके नाटक एक बार कर भी लेगा कोई, किंतु फिर अपने कलाकारों को क्या देगा? उनसे कहेगा, ‘पैसा नहीं है भाई, यूँ ही काम करो।’ तो वो कितने दिन करेंगे! उनके भी घर-परिवार है जिन्हें पालना है। ऐशोआराम न सही, पर दो वक्त की रोटी तो जुटानी ही है। यदि वो रंगमंच छोड़ टी.वी. या सिनेमा की तरफ भागेगा तो हम उसे गालियाँ देंगे, किंतु इससे वो रूकेगा नहीं। रंगकर्मी अपना बलिदान कितना करेगा! हमारे भारतीय समाज में, बड़े हो जाने पर हर व्यक्ति को अपने घर व घरवालों को देखना पड़ता है। कलाकर्म में लगे हों, तो भी कोई छूट नहीं मिलती। स्थितियाँ ही वैसी नहीं होतीं। तब… भूखे पेट रहकर, घरवालों की दुर्दशा देखकर, कोई कितने दिन नाट्यकर्म में टिकेगा! उसका जुनून कितने दिन बचेगा! वो करेगा ही नहीं। उसे हर हाल में अलग होना ही पड़ेगा। चिढ़कर, निराश होकर दूसरा रास्ता अपनाएगा। बाद में कोई आने को कहेगा भी, तो बड़ी कड़वाहट से पलटकर कहेगा – भई आप ही करो, हमने बहुत करके देखा है ये नाटक वाटक!

सही कहती हैं आप… जीवन में स्थिरता बिल्कुल न हो, तो कलाओं की बात किसतरह सूझे…! क्षेत्रीय भाषाओं के नाटक और हिंदी नाटकों तथा उनके दर्शकों पर कुछ कहें।

देखिये, क्षेत्रीय भाषाओं में बंगाली नाटक कलात्मक सोच व गहरी समझ से बनाते हैं। मराठी में भी बड़ा बढ़िया काम होता है। किंतु जहाँ तक गुजराती रंगमंच की बात है, तो वो पूरीतरह से व्यावसायिक हो गया है। हल्कापन, छिछोरी और घटिया-सी कॉमेडी। दक्षिण में केरल, कर्नाटक में भी बेहद अच्छा रंगकर्म होता है। जबकि हिंदी का दर्शक पूरे भारत में है। हम तो दक्षिण में भी जाते हैं, वे भले ही पूरा वाक्यार्थ न भी समझें किंतु नाटक देखने आते हैं। समझने की चेष्टा करते हैं। मेरा मानना है कि आप यदि अच्छा काम कर रहे हैं और लगातार करते जा रहे हैं तो यह शुभ संकेत हैं। निरंतरता विकास का सूचकांक होती है। एक नाटक तैयार किया, उसके 100-150 शो हो गए तब तक दूसरा तैयार हो गया, उसे उतारा तो यही गतिशीलता सकारात्मक भविष्य की तरफ इंगित करती है। इसी से दर्शक वर्ग बढ़ता है। आज देखें, पृथ्वी में तारीखें नहीं मिलतीं। जब हमने शुरु किया तो जेनिफर जी हमसे पूछती थीं कि तुम बताओ, कितने दिन के लिए हॉल चाहिए! तो दृश्य तो बदला है। काम बहुत हो रहा है और अच्छा भी हो रहा है।

आप नाटकों को लेकर बाहर भी जाती हैं, कहाँ के दर्शक आपको संजीदा लगे?

निर्मला जी, दर्शक हर जगह के अच्छे होते हैं। इसके लिए मैं तो क्या, कोई भी शिकायत नहीं कर सकता। मेरा मानना है कि दर्शक कभी खराब नहीं होते। हर जगह हर तरह के नाटक किये हैं मैंने और प्रत्युत्तर बेहद उत्साहजनक रहा। ‘बॉम्बे मेरी जान’ हो या ‘दयाशंकर की डायरी’ हो या ‘शकुबाई’। यदि नाटक में ही बाँधने की ताकत नहीं तो दर्शक बेचारा क्या करेगा! हमारे जो गुरु हैं काली साहब, वे कहते थे कि यदि मंचन के वक्त प्रेक्षक ज़्यादा खाँसने भी लगें, तो यकीन मानों, तुम्हारे काम में कमी रह गई, जो उन्हें बाँध नहीं पा रही। नाटक का असर तो दर्शक की सोच पर ऐसा होना चाहिए कि वो खाँसना भूल जाए। कमी हमारी भले रह जाए, दर्शक में कोई कमी नहीं होती। जैसा हम परोसेंगे वैसा ही वो खाएगा।

स्थापित नाटक नए कलाकारों से करवाएँ तो मेहनत उतनी ही हो जाती होगी? समय भी ज़्यादा देना पड़ता होगा?

उससे भी ज़्यादा। वापस ज़ीरो से शुरु करना होता है। देखिए, बेहतरीन कलाकार सिर्फ दस प्रतिशत ही मिलते हैं। उन्हें गढ़ना-तराशना पड़ता है।

हिंदी नाटकों पर पड़े पश्चिमी प्रभाव पर आप क्या सोचती हैं? प्रेक्षक के बीच एकात्मकता का समीकरण किस तरह सधता होगा, जो नाटक के आस्वादन की प्रथम शर्त होता है और ज़रूरत भी?

यह सही बात है किंतु हमारे यहाँ अच्छे नाटक लिखे ही नहीं जा रहे हैं। जबकि पश्चिमी नाटक बेहद गहरे व अच्छे हैं, इसमें तो दो राय हो ही नहीं सकती। हमारे यहाँ कभी कालिदास और दूसरे पारम्परिक नाटकों का लेखन हुआ, फिर बीच में बड़ा शून्य आ गया। बाद में मोहन राकेश, विजय तेंदुलकर आदि ने शुरु किया। विदेशी नाटकों में इब्सन, स्पीलबर्ग, ऑर्थर मिलर, टेनीसन आदि के एक से एक बढ़िया नाटक हैं। अब ‘डॉल्स हाउस’ जैसा नाटक हमारे भारतीय समाज के हिसाब से बड़ा मौजूँ है। बात वही आती है कि जब अपनी भाषा में अच्छी कहानी नहीं मिलती तो पश्चिम से लेना पड़ता है, वो कुछ बुरा भी नहीं है। मगर उसमें अपने यहाँ की अनुकूलता लाने के लिए बड़ा उलटफेर करना पड़ता है जिससे संवेदना का स्तर ज़रा कम हो जाता है जो कि प्रेक्षक को छूने के लिए बहुत ज़रूरी तत्व होता है।

पारम्परिक रंगमंच तथा प्रायोगिक रंगमंच पर कुछ कहें।

समय के साथ प्रयोग होने चाहिए। पूर्ण रूप से पारम्परिक एक नाटक हमने बनाया था, जो पूरीतरह से भरतमुनि के नाट्यशास्त्र की शैली पर था। जिसमें आत्माएँ बदल जाती हैं। उसमें एक नया सीन भी डाला। अब ‘शकूबाई’ हो या ‘दयाशंकर की डायरी’, तो उसमें एक लकीर खींचना मुश्किल है कि कहाँ वो परम्परावादी से प्रयोगवादी हो जाता है। मूलतः दोनों ही धारणाओं पर चलते हैं। इन दिनों पूरी तरह प्रयोगवादी नाटक भी खेले जाने लगे हैं जिनमें सिर्फ बातें ही बातें होती हैं; कहानी होती ही नहीं। बस सवाल-दर-सवाल होते हैं। अब प्रेक्षक की बौद्धिकता पर निर्भर है कि वो उसमें से कितना निकाल पाता है। जहाँ तक मेरी अपनी राय का प्रश्न है तो मैं इस तरह की प्रयोगवादी या बुद्धिजीवी सोच को नहीं मानती। हम नाट्यशास्त्र में सर्वप्रथम पढ़ते भी यही है कि नाटक का धर्म है वो अपने दर्शकों का मनोरंजन करें। समाज की सोच के अनुरूप हो जिसमें रोचकता इतनी हो कि कड़वी बात भी अहिस्ता से कह दी जाए और दर्शक उससे बंधा रहे।

आप ‘दयाशंकर की डायरी’ देखें। इसमें हँसने वाली कोई बात नहीं है पर वो अपने दर्शकों को पूरी तरह से झकझोर देता है। वैसा ही ‘शकूबाई’ में भी है। देखना यह है कि हमें कौन सी बात अंडरलाइन करनी है और उसे किस तरह दिखाना है। बच्चे को कड़वी दवा पिलानी है तो उसे पुचकार कर, बहलाकर, उसका ध्यान इधर-उधर बँटाकर मिठाई में लपेटकर देनी पड़ती है। पूरी तरह कभी कोई चीज़ प्रयोगात्मक करें, तो हो सकता है वो रचना साहित्य और लेखन की दृष्टि से बहुत ऊँची जगह पहुँच जाए, बेहतरीन नाटक बन जाए परंतु यदि उसे दर्शक देखना ही न चाहे, प्रेक्षागृह से उठकर प्रारंभ में ही बाहर निकल जाए तो ऐसे प्रयोग का क्या फायदा? आजकल यह सब भी चल रहा है। ऐसी चीज़ों को बढ़ावा दिया जा रहा है जिसे देखकर दर्शक भाग जाएँ। उससे होता यह है कि दर्शक नाटक देखने जाना छोड़ देते हैं। भई नाटक ऐसा ही होता है तो हमें नहीं देखना। इससे तो अच्छा है कोई फिल्म ही देख ली जाए। एक खास तरह का आर्टवर्ल्ड माफिया है जो ऐसे लोगों को बढ़ावा देता है। उनके यहाँ-वहाँ शो करवा देता है। उन्हें बाहर जाने की स्कॉलरशिप भी दे देता है जबकि उन्होंने मुश्किल से अच्छे दो नाटक तक नहीं किये होते। दर्शक आए न आए इससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। समीक्षा बहुत अच्छी करवा के छपवा लेते हैं। ऐसे नाटक से किसका क्या भला होगा?

खाली प्रेक्षागृह में नाटक खेलने वाले कलाकार को कैसा लगता होगा…? दर्शकों से ही उसे ऊर्जा मिलती है जबकि…

फिर भी करते है। ये मिडियॉकर्स हैं जो कला-रसिक बनने का ढोंग करते हैं अब देखिये, हमारा कोई शो चल रहा है, हाउसफुल हो गया है, बाहर लोग टिकट पाने के इंतज़ार में निराश खड़े हैं। बड़े प्रेक्षागृह की पहली पंक्ति में रंगमंच के कुछ ऐसे लोग आ विराजते हैं जो पहले सीन के बाद उठकर बाहर चले जाते हैं। कहते हैं, भीतर इतनी भीड़ है, हमें घुटन होती है। इस तरह देखने की हमारी आदत नहीं है। आसपास के लोग रंगमंच के प्रेक्षक नहीं दिखते। सीटी बजा रहे हैं। डायलॉग भी सुनाई नहीं देता। अब बताइये, हम उनसे क्या कहें? थोड़ा धैर्य रखना पड़ता है। नाटक देखने का सलीका तो आते-आते आता है। ‘यार बन्ना’ एक अच्छा नाटक है। यशपाल शर्मा उसमें काम कर रहे हैं। यशपाल फिल्मों में भी अक्सर दिखते हैं। अब कुछ लोग उनके साथ आ जाते हैं। वे यशपाल के मंच पर आते ही सीटी बजा देते हैं। तो इससे इतनी बड़ी आफत तो नहीं आ पड़ी। नाटक पसंद आएगा तो फिर आएंगे। यशपाल नहीं होंगे तो नाट्य समूह का नाम देख कर आएंगे। फिर सीटी नहीं भी बजायेंगे मगर हमारे अंदर सहिष्णुता रही ही नहीं।

इसे ही तो ओरिएन्टेशन कहते हैं…

हाँ बिल्कुल, दर्शकों का अपना ओरिएन्टेशन होता है। जब हमारा नाटक खत्म होता है तो हम अपने दर्शकों के चेहरे व आँखों के भाव पढ़ते हैं। निर्देशक या नाट्य समूह के नाम पर वे तालियाँ बजाते हैं। खड़े हो जाते हैं। यह कोई सिर्फ उस दिन का पावना नहीं होता। यह हमारे वर्षों के काम का मोल है। आप उसे यह कहकर खारिज कर देना चाहते हैं कि यह कोई नाटक है! यह तो बम्बइया नाटक है। इसलिए ही प्रयोगात्मक लोगों से मुझे ज़रा एलर्जी ही है। प्रयोग ज़रूर हो किंतु कला के अनुरूप हो। उसे निखारे, न कि उसे छिपा दें।

बिल्कुल सही कहा आपने, होना तो यही चाहिए।

आजकल 60-65 सीटों के हॉल में कुछ इसीतरह के नाटक कर लिये जाते हैं। कहते हैं, हाउसफुल था। एक बार मैं गई, अपने ‘एकजुट’ के बच्चों को भी ले गई। मंच पर जो दिखा, न उसका सिर था न पैर। उलूल-जुलूल और अंट शंट सा। बच्चों को क्या समझ में आता, स्वयं मेरे पल्ले भी ठीक-ठीक नहीं पड़ रहा था। बाद में धीरे-धीरे कहीं अमेरिका, ईरान, अफगानिस्तान…। पता चला, इराक पर अमेरिका के जुल्मों की कथा है। ठीक है, जुल्म तो बहुत हुआ, उस पर नाटक करो, बड़ी बात है। पर कुछ ऐसा तो करो, जो समझ में भी आए। अरे यार सोचो कुछ, अफगानिस्तान भारत का ही द्वार रहा कभी, चालीस मिनट में खत्म हो गया। दर्शक भौंचक्का सा, ठगा सा। दहशत के मारे कोई न कहे कि कुछ समझ में नहीं आया। बस चुपचाप! ये इतने पैसे खर्च किये लाखों-लाख और बनाया क्या? पैसे तो खैर खर्च करने ज़रूरी थे नहीं तो अगले वर्ष और कैसे मिलेंगे…?

नादिरा जी, जीवन के कुछ यादगार पलों पर बात हो?

मेरे जीवन में मेरा सबसे अच्छा, सबसे सच्चा दोस्त रंगमंच है। जिसने कभी मुझे धोखा नहीं दिया, शिकायत नहीं की, बुरा नहीं किया। मैंने ही इसके साथ भले ही गलत किया हो, बीच में एक-डेढ़ वर्ष इसे छोड़कर। जब कभी ज़रा ज़्यादा मेहनत की, मोहब्बत की रंगमंच से, तो इसने भी मुझे वापस लौटाने में कभी कसर नहीं छोड़ी। जैसे, किसान जान लगाकर खेत पर काम करता है तो जमीन उसका सौ गुना करके लौटाती है। उसे खुश कर देती है। कमी करने वाले में भले हो, रंगमंच में नहीं होती। अभी हम तेरह लोग लम्बी यात्रा पर जा रहे हैं। जगह-जगह शो करने हैं इस गर्मी में पंजाब में। तो स्वास्थ्य का ध्यान तो रखना ज़रूरी है। उम्र के साथ असर तो आता ही है। हमारा एनर्जी लेवल घटता है। पर यदि काम की बात करूँ तो मेरे उत्साह में कोई कमी नहीं है। आज भी वही है जो शुरुआती दिनों में था। मुझे कोई कहता है, ‘थोड़ा ब्रेक ले लो’ तो मेरा जवाब होता है, ‘कभी नहीं’। यदि ब्रेक ले लिया तो बैठ ही जाऊँगी। काम से मुझे ताक़त मिलती है। फिर पसंद का काम कर रहे हैं तो वह बड़ा सुकून देता है।

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