अमर शेख़ ‘इप्टा’ के मराठी मंच की एक स्टार शख़्सियत थे और ‘वन-मैन शो’ में यकीन रखते थे। उनके गीत सुनकर लोग मंत्रमुग्ध से रह जाते थे।
एक दिन उन्होंने हमारा एक ‘वन-एॅक्ट प्ले’ देखा ‘सूरज’ – जिसमें मैंने भी काम किया था। उन्हें यह नाटक इतना अच्छा लगा कि उन्होंने इसे मराठी में पेश करने की ख़्वाहिश ज़ाहिर की। हम दोनों साथ बैठ गए और सिर्फ़ दो रातों में हमने नाटक का अनुवाद पूरा कर लिया। यह नाटक ‘सरजेराव ख़ामोशी’ के नाम से मंचित हुआ।
अन्नाभाऊ साठे समाज के एक कमज़ोर वर्ग से ताल्लुक रखते थे। उनका जन्म महाराष्ट्र के एक गाँव में एक ग़रीब दलित परिवार में हुआ था। बॉम्बे की एक टेक्सटाइल मिल में एक कामगार की नौकरी पाने से पहले उन्हें बहुत बुरे और अपमानजनक दिन देखने पड़े थे। अपनी नौकरी के दौरान वे मज़दूर आंदोलन के सम्पर्क में आए, जिसका नेतृत्व कम्युनिस्ट पार्टी के हाथ में था। इस आंदोलन ने उन्हें एक नए उत्साह से भर दिया और वे पूरी लगन के साथ पढ़ने-लिखने में जुट गए। उन्होंने मराठी की परम्परागत ‘तमाशा’ और ‘पवाडा’ शैली में कुछ नाटक लिखे। एक दिन वे अपना एक नाटक ले कर मेरे पास आए। वे बहुत निराश दिखाई दे रहे थे, क्योंकि मराठी के एक बड़े लेखक ने उनके नाटकों को सिरे से ख़ारिज कर दिया था। ‘‘जाओ और कामगारों के लिए ‘तमाशे’ और ‘पवाडे’ लिखो।’’ उसने बड़े तिरस्कारपूर्ण ढंग से कहा था।
मैं उनकी मदद करना चाहता था, इसलिए मैं उनके इस नाटक को हिंदी में पेश करने के लिए राज़ी हो गया। यह नाटक ‘इनामदार’ के नाम से मंचित हुआ। इसके निर्देशक आर.एन.सिंह थे।
इसके बाद अन्नाभाऊ और मैं हमेशा के लिए दोस्त बन गए।
एक दिन काफ़ी जोशीले मूड में मैंने पंद्रह साल पुराना अपना एक नाटक निकाला और अन्नाभाऊ की प्रतिक्रिया जानने जा पहुँचा। नाटक छुआछूत की समस्या पर आधारित था जो उन दिनों एक अहम मुद्दा था। उन्होंने बड़े ध्यान से पूरे नाटक को सुना और फिर अपनी राय देते हुए कहा, ‘‘इसे फाड़ कर फेंक दो, कामरेड! यह भी कोई नाटक है भला।’’
मैंने हैरान हो कर इसकी वजह जाननी चाही तो उन्होंने कहा, ‘‘आप एक ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए हैं। आप एक दलित की नब्ज़ को नहीं समझ सकते।’’
मैंने पलट कर जवाब देते हुए कहा, ‘‘सभी यहूदियों को पूँजीवादी कहा जाता है, लेकिन पूँजीवाद की कब्र खोदने वाला कार्ल मार्क्स भी एक यहूदी था।’’
मेरी इस दलील पर हम दोनों हँस पड़े। लेकिन इसके बाद मैंने उस नाटक को एक तरफ़ रख दिया और कभी पलट कर नहीं देखा।
अन्नाभाऊ एक तीखे आलोचक थे, लेकिन अपनी ख़ुद की आलोचना भी वे उसी सख़्ती से करते थे।
संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन के दौरान मुझे गोवानकर के साथ-साथ इन दोनों महान हस्तियों के साथ एक बार फिर काम करने का मौका मिला। लेकिन फिर मौत के बेरहम हाथों ने एक के बाद एक इन दोनों को ही हमसे छीन लिया। इनकी बेवक्त मौत महाराष्ट्र के फोक थियेटर के लिए एक बड़ा झटका थी।
…मेरा ख़याल है कि यह 1957 की बात है, हमें फ्लोरा फाउंटेन वाली जगह ख़ाली
करने के लिए कहा गया, जहाँ हम पिछले छह-सात बरसों से रिहर्सलें कर रहे थे। हम कोई नई जगह तलाश करने लगे।
भूलाभाई देसाई रोड पर भूलाभाई देसाई का मशहूर बँगला था। देसाई साहब एक जाने-माने बैरिस्टर थे और आज़ादी की लड़ाई के दौरान कांग्रेस के नेता रह चुके थे। उनकी मृत्यु के बाद एक ट्रस्ट बना दिया गया था और उनके बंगले को ‘भूलाभाई देसाई इंस्टीट्यूट’ में बदल दिया गया था। इस इंस्टीट्यूट में सिर्फ़ एक रूपये महीने के किराये पर कलाकारों को काम करने के लिए जगह दी जाती थी। एम. एफ. हुसैन, इब्राहिम अल्काजी और पण्डित रविशंकर जैसे कई जाने-माने कलाकार इस सुविधा का लाभ उठा रहे थे। मि. देसाई की पुत्र-वधु इस इंस्टीट्यूट की चीफ ट्रस्टी थीं। उन्हें ‘इप्टा’ की गतिविधियों की जानकारी थी और हमारे साथ उनकी पुरानी सहानुभूति थी। हमने रिहर्सल के लिए उनसे कुछ कमरों की माँग की तो उन्होंने फ़ौरन अपनी मंजूरी दे दी। इंस्टीट्यूट के मैनेजर मि. सोली बाटलीवाला ने भी हमें पूरा-पूरा सहयोग दिया। अन्नाभाऊ साठे के ‘इनामदार’ की रिहर्सलें हमने इसी नई जगह से शुरु कीं।
‘इप्टा’ का आठवाँ नेशनल कॉन्फ्रेन्स और फेस्टिवल दिल्ली में 1958 में हुआ। … इस समारोह का उद्घाटन डॉ. राधाकृष्णन के हाथों हुआ था, जो तब देश के उपराष्ट्रपति थे। हमारा पहला नाटक अन्नाभाऊ साठे का ‘इनामदार’ था, जिसमें मेरी मुख्य भूमिका थी।
ए.के. हंगल : मैं एक हरफ़नमौला, पृ. 79-82