श्रीमती सोनाली चक्रवर्ती की बातचीत

श्रीमती सुचिता मुखर्जी मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ की उन गिनी-चुनी महिला रंगकर्मियों में से एक हैं, जो अनवरत विगत तीन दशकों से भी ज़्यादा रंगमंच पर बतौर प्रतिबद्ध षौकिया रंगकर्मी अपना उल्लेखनीय योगदान देती आ रही हैं। वे उन विशिष्ट रंगकर्मियों में से हैं, जो उम्र के पाँच दशक पार करने पर भी अपने सम्पूर्ण पारिवारिक दायित्व, शिक्षिका के रूप में सामाजिक दायित्व एवं रंगमंच की प्रतिबद्धता – तीनों के बीच सामंजस्य स्थापित करके पूरी निष्ठा और समर्पण से सक्रिय हैं। इप्टा भिलाई जैसी महत्वपूर्ण रंग संस्था की अध्यक्ष सुचिता मुखर्जी धन या प्रसिद्धि के लिए रंगकर्म नहीं करती, वरन् सामाजिक प्रतिबद्धता और आत्मतुष्टि के लिए रंगकर्म करती हैं और शायद इसीलिए उनके अभिनय में संवेदनशीलता और आत्मविश्वास देखते ही बनता है।
उनसे मुलाकात की भिलाई की स्वतंत्र पत्रकार श्रीमती सोनाली चक्रवर्ती ने।

रंगकर्म, नाटक और मंच से जुड़ाव, रूचि, संबंध और शुरुवात कब से? किस शहर से हुआ आगाज़?

आँखें खुली तो घर में नाटकों का माहौल था, होश सम्हाला तो अनेक पात्र आसपास विचरने लगे, कानों में गूँजती थी संगीत की सुर-लहरियाँ और साँस लेने को थी अभिनय की आबोहवा। ऐसा था हमारे घर का माहौल। अभिनय के कीटाणु तो मेरे खून में ही हैं। माताजी श्रीमती संध्या सेन व पिताजी श्री शैलेन्द्र सेन जी दोनों नाट्यकर्मी थे। वे नाटक लिखते थे, निर्देशित करते थे, संगीत निर्देशन करते थे, अपने घर में रिहर्सल करवाते थे। इन्हीं के बीच में कब इस अभिनय यात्रा में शामिल हो गई, पता ही नहीं चला। नृत्य, संगीत, ड्रामा हर क्षेत्र में काम किया मैंने। बचपन में हम कटनी में रहते थे, वहाँ ‘बाल रामायण मंडली’ में थी, स्कूल की हर गतिविधि में भाग लेती थी। मंच तो मेरा दूसरा घर था। सतना ‘इप्टा’ से जुड़ी तो अगले पड़ाव की ओर कदम बढ़ा।

रंगकर्म में आपके सफर की शुरुआत अभिनय, निर्देशन या अन्य किस क्षेत्र से हुई? क्या अब भी उसी क्षेत्र में सक्रिय हैं? थियेटर शौकिया तौर पर करती हैं या पूर्णकालिक रंगकर्मी हैं आप?

शुरुआत भी अभिनय से की और आज भी जुनून अभिनय ही है। पात्र गढ़ना आसान है, पर उन्हें समझना उससे मुश्किल, और उन्हें अभिनीत करना उससे भी मुश्किल। अभिनय के द्वारा एक चरित्र को जीना होता है, हमें वह भी दिखाना होता है, जो चेहरे पर लिखा होता है और वह भी दिखाना होता है, जो चेहरे के पीछे छिपा होता है। यूँ तो नौकरी, घर-गृहस्थी के बाद थियेटर करती हूँ पर दिल से पूर्णकालिक रंगकर्मी हूँ। संभवतः इसीलिए अपनी बाकी जिम्मेदारियों को बखूबी निभा पाती हूँ।

आपका पहला नाटक कौनसा था? अब तक कितने नाटक और किन-किन निर्देशकों के साथ काम किया है? आपको किस निर्देशक के साथ काम करना सबसे ज़्यादा अच्छा लगा और क्यों?

सात साल की उम्र से नाटक कर रही हूँ। पहली बार शीर्षक भूमिका ‘एकलव्य’ नामक नाटक में निभाई। ‘दीपदान’, ‘रीढ़ की हड्डी’, ‘आला अफसर’, ‘सिलसिला जारी रहेगा’, आदि मेरे प्रारम्भिक नाटक हैं। ‘क ख ग’ नाट्य संस्था, जो आज सतना इप्टा के नाम से जानी जाती है, में बंगला नाटक तपन मुखर्जी के निर्देशन में किया। राजीव त्रिवेदी के निर्देशन में ‘बल्लभपुर की रूपकथा’ नाटक किया। फिर तो अनेक निर्देशकों के साथ काम किया, उनमें से अविस्मरणीय हैं – शरीफ अहमद, राजेश श्रीवास्तव, मणिमय मुखर्जी, अरूण पाण्डेय, श्रवण कुमार, मिन्हाज असद, पंकज मिश्रा आदि। पंकज मिश्रा जैसे जुझारू व युवा निर्देशक के साथ काम करके मेरे अंदर के कलाकार को बहुत संतुष्टि मिली। प्रयोगवादी सोच और नव्यता के प्रति आग्रह – पंकज में दोनों चीज़ें हैं।

किन अभिनेताओं, निर्देशकों और परिस्थितियों से आपने अभिनय की बारीकियाँ सीखीं?

मेरे प्रथम गुरु मेरे माता-पिता थे, उन्हीं से प्रारम्भिक शिक्षा मिली। सिनेमा, नाटक देखकर सीखा। सुचित्रा सेन की आँखों से सीखा, शबाना आज़मी के ज़मीनी प्रयोगों से सीखा। हमारे आसपास विभिन्न चरित्र बिखरे रहते हैं। किसी से बात भी करती हूँ तो उसके हावभावों पर गौर करती हूँ। निर्देशक जब पात्र परिचय देते हैं तब लेखक की कल्पनाओं के अनुसार ढल कर पात्र निभाना होता है। अभिनेता की भावनाएँ, उसके दिमाग में उपजे विचार और उसकी स्वाभाविक प्रतिक्रियाएँ तथा शारीरिक चेतना स्वयं भी सिखाती रहती है। सीखने की प्रक्रिया बदस्तूर जारी है।

आप किसी नाटक में अभिनय करना कब स्वीकारती हैं? उस भूमिका में क्या विशेष देखती हैं? नाटक की थीम, लेखक, निर्देशक या स्वयं को मिलने वाली भूमिका? किसी भी भूमिका को निभाने से पूर्व किन बातों की ओर ध्यान देती हैं?

हम कलाकारों के पास कोई चॉइस नहीं होती। निर्देशक हमें जिस भूमिका या पात्र के काबिल समझते हैं, हमें वही रोल मिलता है। हमारा काम होता है पात्र के अनुसार खुद को ढालना और अभिनय को मंच पर जीवंत करना। किसी भी नाटक में कोई भी भूमिका छोटी या बड़ी नहीं होती। किसी में मैं मुख्य भूमिका में होती हूँ तो किसी में नामालूम से कुछ पलों का दृश्य भी होता है। पर हाँ, नाटक का कोई भी दृश्य व्यर्थ नहीं होता। हरेक संवाद, हरेक पात्र, हरेक दृश्य की अपनी अहमियत होती है। रही तैयारियों की बात, तो सबसे ज़्यादा साथ देता है आईना, आइने के सामने रिहर्सल करती हूँ। अपना ही अक्स सहायता करता है चरित्र के भावों को चेहरे पर लाने में। फिर निर्देशक की आज्ञा तो शिरोधार्य है ही।

आपकी ‘एक्टिंग प्रोसेस’ क्या है? जब आपको कोई भूमिका दी जाती है, उस क्षण से लेकर उसके मंचन तक आप किस तरह का होम वर्क करती हैं? अब तक की सबसे यादगार भूमिका कौन सी रही? आपके लिए महत्वपूर्ण?

रोजमर्रा के जीवन में कोई होमवर्क नहीं होता। तब हम एक आम इंसान होते हैं, सुख में हँसते और दुख में रोते हुए। खलील जिब्रान कहते हैं – ‘‘जब तुम दुख से भर जाओ तो अपने दिल की गहराइयों में उतरकर देखो, शायद उल्लास का कोई बड़ा कारण वही हो, जिसके लिए तुम रो रहे थे।’’ ठीक यही अहसास मुझे होता है जब मैं रिहर्सल में पहुँचती हूँ। निर्देशक के आदेशानुसार पात्र निभाने को तैयार हो जाती हूँ। आम इंसान से अचानक नाटक की एक पात्र हो जाती हूँ। अभिनय मेरा जीवन है और जीने के लिए साँस लेने की प्रैक्टिस नहीं करनी पड़ती।

यादगार भूमिका की बात करूँ तो मेरे रंगमंचीय जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है नाटक ‘जब मैं सिर्फ औरत होती हूँ’ की ‘सैदा’ की भूमिका। इस भूमिका में कई शेड्स हैं, विचारों का मंथन है, धार्मिक भावनाएँ हैं, बेटी को खो चुकी माँ की व्यथा है और एक लड़की की इज़्ज़त बचाने के लिए अपने बेटे की जान लेने की हिम्मत है। पंकज मिश्रा के निर्देशन में निभाई गई यह भूमिका मेरे दिल के बहुत करीब है। सांप्रदायिकता, रूढ़िवादिता, स्वार्थ, मोह-माया, प्रतिशोध आदि भावनाओं से उठकर सिर्फ ‘एक औरत’ होने की अनुभूति की अद्भुत प्रस्तुति है ‘सैदा’। इसके करीब चौदह शो हो चुके हैं एवं कई पुरस्कार भी हम जीत चुके हैं।

यथार्थवादी रंगमंच या लोकशैली रंगमंच? आपका स्थान एवं झुकाव किस तरफ?

यथार्थवादी रंगमंच – आम इंसान के जीवन से जुड़ने का सशक्त माध्यम है यथार्थवादी रंगमंच।शहरी जीवन आज खोखलेपन के दौर से गुज़र रहा है। यह राजनीतिक, सामाजिक, मानसिक और आर्थिक कठिनाइयों का दौर है। धार्मिक विश्वास लड़खड़ा रहे हैं, मानवीय संबंधों में ठंडापन आ रहा है, व्यावहारिक संबंधों की पवित्रता पर प्रश्नचिन्ह लग रहे हैं?, परिवारों में दरार पड़ रही है। पूरा समाज मानो भँवर में घिरा हुआ है। ऐसे में यथार्थवादी रंगमंच मेरे विचार में समाज का आइना बन रहा है।

क्या आपने पार्श्व मंच पर भी किसी जिम्मेदारी का निर्वाह किया है? आप मंच और पार्श्व मंच के कार्यों का परस्पर तालमेल कैसे बिठाती हैं?

हम कलाकारों का विश्वास इसी सिद्धांत पर है कि ‘‘शो मस्ट गो ऑन’’ और इसके लिए हम स्टेज और बैकस्टेज दोनों जगह काम करते हैं। हज़ारों ज़िम्मेदारियाँ होती हैं, कलाकारों के कास्ट्यूम, मेकअप, मंचसज्जा तक। हमारा काम होता है नाटक का सफल मंचन।

अब बातें व्यक्तिगत जीवन की। परिवार की ओर से शुरू से लेकर अब तक किस प्रकार का सहयोग या असहयोग मिलता रहा? विवाह पूर्व और विवाह पश्चात रंगकर्म करने में क्या फर्क महसूस किया आपने?

मैं शायद उन कुछ सौभाग्यशाली महिलाओं में से एक हूँ, जिनको मायका और ससुराल समान सोच वाला मिला। मायके में तो सभी नाट्य और रंगकर्म को समर्पित लोग थे। उस ज़माने में जहाँ सतना, कटनी जैसे कस्बों में लड़कियाँ घर से नहीं निकल सकती थीं, वहाँ मेरे पिताजी हम बहनों को मंच तक स्वयं पहुँचाते थे। उन्हीं की दी विद्या से आज यहाँ हूँ। सकारात्मक सोच उन्हीं से मिली। शादी के बाद ससुराल आई तो पति मणिमय मुखर्जी भी रंगमंच को समर्पित व्यक्ति थे। उनका प्रेम, जुनून, नशा सब रंगकर्म था। मेरी सासू माँ श्रीमती अन्नपूर्णा मुखर्जी उस ज़माने में पं. उदयशंकर से नृत्य की शिक्षा-प्राप्त थीं। उन्होंने मुझे सांसारिक झमेलों से हमेशा दूर रखा और रंगकर्म के लिए प्रोत्साहित किया। पूरे परिवार के निस्वार्थ और स्नेहपूर्ण सहयोग से ही मैंने यह जगह बनाई है।

आप एक शिक्षिका भी हैं अतः क्या आप अपने अभिनय में अपनी इस भूमिका को कहीं बाधक महसूस करती हैं?

शिक्षिका होने को तो बाधक महसूस नहीं करती परंतु हाँ, नौकरी करने को ज़रूर बाधक महसूस करती हूँ। नौकरी की वजह से मैं बाहर के शहरों के शो मिस करती हूँ। कई बार रिहर्सल के समय में भी परिवर्तन करना पड़ता है। शिक्षिका होने के नाते तो मुझमें छोटे बच्चों के साथ कई गुण विकसित होते हैं। उनके अभिभावकों सहित कई लोगों से परिचय होता है। सभी से कुछ न कुछ आत्मसात करने की कोशिश करती हूँ।

आप अपने रंगमंचीय जीवन में आरम्भ से ही इप्टा से जुड़ी रहीं। इप्टा एवं अन्य रंगसंस्थाओं में आप क्या अंतर देखती हैं? साथ ही भिलाई इप्टा एवं महानगरों, जैसे – दिल्ली, मुंबई की इप्टा की इकाइयों में क्या अंतर देखती हैं?

यह मेरा सौभाग्य रहा है कि मैं इप्टा जैसी संस्था से जुड़ी, जो संस्था आज़ादी के पहले से ही एक बेहतर समाज स्थापित करने हेतु कार्य कर रही है। आजादी के पहले इप्टा में मेरे पिताजी स्व. एस.एन.सेन और उनके परिवार के कई लोग शामिल हुए। यह सुखद संयोग रहा कि मेरी ससुराल के लोग भी इप्टा में रहे। बड़े ही स्वाभाविक ढंग से मेरा भी इप्टा से जुड़ना हुआ, जो बेहद सुखद रहा। मैं ’90 के दशक के पहले सतना, मध्यप्रदेश में और उसके बाद अब तक भिलाई, छत्तीसगढ़ में रंगकर्म कर रही हूँ।

इप्टा और दूसरी रंगसंस्थाओं में एक नहीं, कई अंतर हैं। सबसे बड़ा अंतर तो विचारधारा का है। इप्टा हमेशा प्रगतिशील सोच वाली संस्था रही है और उसका सरोकार हमेशा आम आदमी के जीवन के संघर्ष के साथ जुड़ा रहा है, जो हमारी पहचान है, इप्टा के रंगमंच का मुख्य और असल किरदार ही आम आदमी है। रही बात भिलाई इप्टा की, तो सब जानते हैं कि छत्तीसगढ़ की सक्रियतम संस्था में एक है, जो वर्ष भर अपने नाटकों, जनगीतों, लोकनृत्यों व अन्य विधाओं के कार्यक्रम में व्यस्त रहकर अपने सामाजिक सरोकार पूरा करने में लगा हुआ है। मुख्य कार्यक्रम में बच्चों का रंगशिविर, जो कि विगत 18 वर्षों से लगातार जारी है, स्थानीय नाट्य समारोह, अन्तर महाविद्यालयीन नाट्य स्पर्धा, स्व. शरीफ अहमद की स्मृति में नाट्य समारोह के अलावा बी.एस.पी. बहुभाषीय नाट्य प्रतियोगिता में प्रतिवर्ष हिस्सेदारी, जनगीतों, गोष्ठियों आदि का आयोजन करता है। बेहद ही व्यस्ततम संस्था है। भिलाई में इप्टा के अलावा भी लगभग तीन-चार नाट्य संस्थाएँ हैं, जो सक्रिय रहती हैं। खासकर बी.एस.पी. बहुभाषीय नाट्य प्रतियोगिता में तो लगभग 16-17 संस्थाएँ हिस्सा लेती हैं। यहाँ आपसी संवाद अच्छा है। परस्पर सहयोग से कई बार नाटकों का प्रदर्शन भी करते हैं। हाँ, यह ज़रूर है कि दर्शकों की संख्या कुछ कम है। प्रचार-प्रसार भी उतना नहीं हो पाता परंतु इप्टा की प्रस्तुतियों में पर्याप्त मात्रा में दर्शक उपस्थित रहते हैं और यह एक लम्बी प्रक्रिया के बाद संभव हुआ है। अच्छे सर्वसुविधायुक्त सभागृह का भी भिलाई में अभाव है। पर हम खुश है समंदर में पानी की बूँद बनकर खो जाने से बेहतर है कि किसी पत्ते पर ओस की बूँद बनकर चमकना।

अब अंतिम किन्तु महत्वपूर्ण प्रश्न। आप रंगकर्म क्यों करती हैं? और इसके आगे क्या?

आप फूल से पूछें कि वह खुशबू क्यों देता है, सूरज से पूछें कि वह रोशनी क्यों देता है, जवाब यही होगा कि वे इसीलिए ही हैं। मुझे लगता है कि मेरे साथ भी ऐसा ही है। अभिनय, रंगमंच इनके बगैर मेरा कोई अस्तित्व ही नहीं है। इसके आगे का कभी सोचा नहीं। परंतु यदि साँस लेना है तो अभिनय करना है, मुझे इतना ही पता है।

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