1936 में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के साथ देश के अनेक भाषाभाषी साहित्यकारों को एक मंच मिला। तत्कालीन परिस्थितियों में भारत की आज़ादी के साथ-साथ मनुष्य मात्र की समानता का सपना देखने वाले संस्कृतिकर्मियों ने 1943 में भारतीय जन नाट्य संघ इप्टा की स्थापना की। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के साथ इन दोनों सांस्कृतिक संगठनों का आदान-प्रदान का संबंध था। अनेक राज्यों में प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा की इकाइयाँ सक्रिय हुईं।
इसी दौर में मुंबई के उपनगर माटुंगा लेबर कैम्प में रहने वाले एक युवा तुकाराम भाऊराव साठे का मच्छर पर लिखा हुआ एक पोवाडा ;मराठी लोकगीत/गाथा का एक प्रकारद्ध कॉम. पगारे ने सुना और उसकी लेखकीय और गायन प्रतिभा से प्रभावित होकर वे साठे को पार्टी के कार्यालय में ले आए। यही तुकाराम आगे चलकर अण्णाभाऊ साठे के नाम से जाना जाने लगा। अण्णाभाऊ साठे का जन्म 1 अगस्त 1920 को सांगली जिले के वाटेगाँव में हुआ था। उन्होंने कोई औपचारिक शिक्षा प्राप्त नहीं की थी। मातंग नामक दलित जाति में पैदा होने के कारण उन्हें बचपन से ही आर्थिक और सामाजिक स्तर पर बहुत संघर्ष करना पड़ा। जीवन की पाठशाला में उन्होंने प्रकृति और लोकजीवन के ढेरों अनुभव इकट्ठा किये। अनेक प्रकार के लोक खेलों और लोकगीतों में उनकी गहरी रूचि होने के कारण उनमें वे सिद्धहस्त हो गए। ग्यारह वर्ष की उम्र में मुंबई आने के बाद अण्णाभाऊ ने आजीविका के लिए अनेक प्रकार के कार्य किये। अनेक झोंपड़पट्टियों और मज़दूर बस्तियों में रहने के कारण मुंबई की आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक विषमता को उन्होंने बहुत गहराई से महसूस किया। इसीलिए जब वे कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े तो मार्क्सवादी विचारधारा उनके लिए संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदना का आधार बन गई। 1944 में उन्होंने अन्य साथियों अमर शेख और गवाणकर के साथ मुंबई में पार्टी के सांस्कृतिक विंग ‘लाल बावटा कला पथक’ का गठन किया। इसके माध्यम से जनसामान्य के बीच उन्होंने मार्क्सवादी विचारधारा का प्रचार-प्रसार किया तथा प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा में भी सक्रिय हो गए।
अण्णाभाऊ साठे की सक्रियता के कारण इप्टा के छठवें राष्ट्रीय सम्मेलन में उन्हें राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना गया। 1953 में सम्पन्न हुए सातवें राष्ट्रीय सम्मेलन में वे उपाध्यक्ष बनाए गए। इस सम्मेलन में बेरोज़गारी पर केन्द्रित अण्णाभाऊ साठे का एक तमाशा लोकनाट्य भी प्रस्तुत किया गया। उन्होंने अनेक नाटक, जिनमें मराठी लोकनाट्य भी सम्मिलित थे, के लेखन, अभिनय के अलावा अनेक पोवाडे, लावणी, छक्कड़ जैसे मराठी लोकगीत गाकर हज़ारों दर्शकों का दिल जीता। आश्चर्यजनक बात यह है कि किसी पाठशाला का मुँह तक न देखने वाले इस संघर्षधर्मी रचनाकार-कलाकार ने 1943 से 1969 के बीच 35 उपन्यास, 13 कहानी संग्रह, 3 नाटक, 14 लोकनाट्य, 10 पोवाडे, अनेक लावणी, एक यात्रा-वर्णन और 12 पटकथाएँ लिखीं। मगर स्थापित साहित्यकारों में उनको अपेक्षित पहचान नहीं मिली। अण्णाभाऊ के 7 उपन्यासों पर मराठी फिल्में बनीं। सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि उनकी रचनाएँ दुनिया की 27 भाषाओं में अनूदित हुई हैं।
अण्णाभाऊ के पोवाडों और लावणी के शीर्षक सुनने से ही पता चल जाएगा कि उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता कितनी गहरी थी। ‘स्टैलिनग्राड चा पोवाडा’, ‘मुंबई चा कामगार’ ;मुंबई का मज़दूरद्ध, ‘बंगाल ची हाक’ ;बंगाल की पुकारद्ध, ‘पंजाब-दिल्ली दंगा’, ‘एकजुटीचा नेता’ ;एकजुटता का नेताद्ध, ‘जग बदल घालुनी घाव’ ;दुनिया बदलो करके चोटद्ध, ‘दुनियेची दौलत सारी’ ;समूची सम्पत्ति दुनिया कीद्ध आदि। उनकी ‘मुंबई की लावणी’ बहुत लोकप्रिय हुई थी, जिसमें उन्होंने मलाबार हिल जैसे मुंबई के पॉश इलाकों और परल जैसे गरीबों-दलितों-वंचितों के उपनगरों के बीच दिखने वाले आर्थिक-सामाजिक विषमता की गहरी खाई का रोचक वर्णन किया है। गीत के अंत में लिखते हैं –
लाल झंडा घेऊन हाती। करायाला येथे क्रांती।।
मजुरांची पिढी नवी पाऊल टाकती।।
अण्णाभाऊ साठे म्हणे। बदलुनी हे दुबळे जिणे।
होणार जे विजयी ते रण करती।।
;भावार्थ : मज़दूरों की नई पीढ़ी अब लाल झंडा हाथों में थामकर क्रांति सम्पन्न करने की ओर नए कदम बढ़ा रही है। अण्णाभाऊ साठे कहते हैं कि, अपने अभावग्रस्त असहाय जीवन को बदलने और समानता स्थापित करने के संघर्ष में वे सफलता प्राप्त करके रहेंगे।द्ध
इसीतरह उनके सभी उपन्यासों और कहानियों के कथानक दलित-वंचित जातियों-वर्गों के जीवन व व्यक्तियों पर केन्द्रित हैं। सभी में अभावों से जूझते हुए लोगों के भीतर की जिजीविषा और संघर्ष का अद्भुत माद्दा बहुत स्पष्ट मार्क्सवादी समझ से गढ़ा गया है। उनकी भाषा जन-भाषा होने के कारण मनोरंजक होने के साथ-साथ वर्गीय यथार्थ को भी अभिव्यक्त करती है।
अण्णाभाऊ साठे का एक बहुत महत्वपूर्ण योगदान यह है कि उन्होंने लोककलाओं को उनके सत्ता और धर्म या भाग्यकेन्द्रित मनोरंजक भूमिका से निकालकर मनुष्यकेन्द्रित किया। तमाशा की शुरुआत में गाई जाने वाली गणेश वंदना के स्थान पर उन्होंने किसानों के राजनायक शिवाजी महाराज तथा श्रमशील मानव के गुणों की वंदना करना आरम्भ किया। इसीतरह तमाशा में बाज़ारू अश्लील स्त्रीकेन्द्रित श्रृंगारिक गीतों-नृत्यों-संवादों की जगह श्रमिक जनता के जीवन के रागात्मक चित्रों को स्थापित किया। साथ ही महाराष्ट्र की शाहीरी परम्परा, जो पेशवा काल में सत्ताधारित चाटुकारिता में बदल गई थी, उसका कायापलट कर उसे भी जनसामान्य के जनजागरण के लिए प्रयुक्त किया। इस समूचे अभियान में उनके साथ शाहीर अमर शेख और कॉमरेड गवाणकर भी कंधे से कंधा मिलाकर काम किया करते थे।
अण्णाभाऊ साठे ने एक और क्रांतिकारी काम किया कि महाराष्ट्र की शाहीरी परम्परा, जो सत्रहवीं सदी में किसानों-कारीगरों के जीवन से जुड़ी परम्परा रही थी, उसे भी पुनः जनवादी जामा पहनाकर जनजागरण की ओर उन्मुख किया। शाहीर आत्माराम पाटील ‘शाहीर’ का अर्थ बताते हैं – ‘‘शाहीर सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन के साथ घनिष्ठ रूप से सम्बद्ध कवि और गायक होता है। वह ‘जन’ की भावनाओं को समझते हुए जन-जीवन का इतिहास जनभाषा में प्रस्तुत करता है। ‘शाहीर’ लोगों को जोश और निर्भयता के साथ क्रांति की ओर अग्रसर करता है।’’ लोकशाहीर अण्णाभाऊ साठे, लोकशाहीर अमर शेख और कॉम. गवाणकर की इस जनजागरणयुक्त शाहीरी परम्परा को आज अनेक शाहीर आगे बढ़ा रहे हैं।
इप्टा लोकशाहीर तथा साहित्यकार का जन्म शताब्दी वर्ष मना रही है। इस अवसर पर सभी प्रगतिशील अवाम की ओर से अण्णाभाऊ साठे को याद करते हुए हम सलाम पेश करते हैं।
उषा वैरागकर आठले
सचिव मंडल सदस्य
राष्ट्रीय समिति
भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा)