अण्णाभाऊ साठे

अण्णाभाऊ साठे लिखित यह कहानी मनुष्य के जीवन-मरण के दर्दनाक संघर्ष को चित्रित करती है। इस विषम समाज-व्यवस्था में बड़ी संख्या में लोगों को अपने जीवन की मूलभूत आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए रोज़गार नहीं मिल पाता और वे थक-हारकर पशुवत व्यवहार करने लगते हैं। इस कहानी में भीमा मज़दूरी करना चाहता है परंतु खदान बंद हो जाती है, उसे कहीं काम नहीं मिलता इसलिए मजबूरन उसे मरघट में मुर्दों के शरीर से सोना निकालकर अपने परिवार का पेट पालना पड़ता है। यहाँ तक मुर्दे के लिए सियारों से भी भयानक संघर्ष करना पड़ता है। यह व्यवस्था द्वारा मनुष्य के मूलभूत अधिकारों को ठुकरा दिये जाने की कहानी है। – अनुवादक

पड़ोसी गाँव में एक बड़े साहूकार के मरने की खबर पाकर भीमा उछल पड़ा। उसके मन में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। वह खुशी के मारे फूला नहीं समा रहा था। उसने एक बार उस गाँव की ओर देखा और तुरंत उसकी निगाहें आसमान में सूरज को निहारने लगीं।

सूरज ढल रहा था। आसमान में घने बरसाती बादल ऐसे मँडरा रहे थे मानों कोई खेत जोता गया हो। उन विकराल बादलों के बीच से ढलते सूरज की रोशनी मुंबई पर पसर रही थी।

धीमी-धीमी हवा चल रही थी। उस घने जंगल में होने वाली सरसराहट से पचास झोपड़ियों वाला गाँव सहमा खड़ा था। पुरानी टिन की चादरें, चटाइयाँ, लकड़ी की पट्टियाँ ओर बोरों से उन सबने घर का आकार धारण किया था। उन घरों में आदमी रहते थे। बेकार चीज़ों ने उन बेकारों के सिर पर साया रखा था। दिन भर पेट की आग बुझाने के काम में लगे लोग अब थककर लौट आए थे। सभी घरों में चूल्हे जल रहे थे। हरीभरी झाड़ियों के ऊपर सफेद धुँआ फैला हुआ था। बच्चे धमाचौकड़ी मचाए हुए थे। एक विशाल इमली के पेड़ तले भीमा विचारों में खोया हुआ बैठा था। उसका हृदय तेज़ी से धड़क रहा था। वह बेसब्री से उस मृत साहूकार का इंतज़ार कर रहा था। उसका मन गाँव के मरघट तक कई चक्कर काट चुका था। इमली के नीचे बैठा भीमा बार-बार कभी गाँव की ओर तो कभी ढलते सूरज की ओर देखता था। उसे अंधेरे का इंतज़ार था। वह बार-बार पहलू बदल रहा था। उसकी लाड़ली बेटी नाबदा वहीं खेल रही थी। बीवी घर में रोटी सेंक रही थी। भीमा की कदकाठी मजबूत थी। सातारा जिले के ग्रामीणों की तरह उसने लाल रंग का गमछा, पीली धोती, मोटी बंडी पहन रखी थी। वह पहलवान की तरह दिखता था। उसका बड़ा सिर, चौड़ी गर्दन, घनी भौंहें, झब्बेदार मूँछें, चौड़ा-चकला मगर गुस्सैल चेहरा देखकर बड़े-बड़ों की भी हवा निकल जाती थी।

भीमा वारणा नदी किनारे के एक गाँव में रहता था। मजबूत शरीर होने के बावजूद पेट भरने की समस्या के चलते उसे मुंबई आना पड़ा था। वहाँ आने के बाद भी उसे काम के लिए दर-दर भटकना पड़ा। मगर उसे काम नहीं मिला। उसका सपना था कि उसे कहीं मज़दूरी मिल जाए, वह भी एक साधारण मज़दूर की तरह वेतन पाए, बीवी के लिए चंद्रहार बनवाए… मगर उसके सपने टूट चुके थे। वह निराश होकर जंगल में बसे मुंबई के इस उपनगर में रहने लगा था। मुंबई में सब कुछ है, मगर काम और सिर ढँकने की जगह – ये दो चीज़ें नहीं हैं। इसीलिए वह मुंबई से नाराज़ था। हालाँकि इस उपनगर में आते ही उसे नज़दीकी पहाड़ की एक खदान में काम मिल गया था।

उस जंगल में काम और सिर ढँकने की जगह पाकर वह खुश हुआ था। वह अपनी साँड-सी ताकत लेकर मानो पहाड़ पर टूट पड़ा था। पहाड़ धीरे-धीरे पीछे खिसकने लगा था। उसके हथौड़े से मानो पत्थर खुद ही डरकर टुकड़ों में बँट जाते थे। ठेकेदार भी उससे बहुत खुश था। भीमा भी नियमित वेतन मिलने से संतुष्ट था।

मगर छै महीने में ही खदान बंद हो गई। भीमा पर बेरोज़गारी की बिजली टूट पड़ी। वह एक दिन रोज़ की तरह सुबह जब खदान पर पहुँचा, उसे बताया गया कि आज से खदान बंद हो गई है। काम छिन जाने की खबर सुनते ही भीमा घबरा उठा। उसकी आँखों के सामने भूख तांडव करने लगी। वह बुरीतरह चिंता में डूब गया। भावी जीवन उसके सामने प्रश्नचिह्न बनकर खड़ा हो गया।

खदान के कपड़े बगल में दबाए भीमा घर लौटने लगा। रास्ते में वह एक नाले के पास रूका। नहाकर वह परेशान हाल घर की ओर बढ़ा। अचानक उसकी नज़र राख की एक ढेरी पर पड़ी। वह किसी लाश की राख थी। जली हुई हड्डियाँ आसपास फैली थीं। मनुष्य की उन हड्डियों को देखकर भीमा और अधिक गंभीर हो उठा। बेचारा कोई बेरोज़गार होगा! थक कर मर गया होगा। मुक्ति पाया … वह सोच रहा था। मेरी भी दो दिनों बाद यही हालत होगी! भुखमरी शुरु हो जाएगी! नाबदा रोती रहेगी, बीवी उदास हो जाएगी और मैं… मैं कुछ नहीं कर पाऊँगा –

अचानक उस राख के ढेर के बीच कुछ चमका। भीमा ने ध्यान से नज़दीक जाकर देखा। एक तोले की सोने की अंगूठी थी। उसने झटके से अंगूठी उठाई और कसकर मुट्ठी बंद कर ली। वह बहुत खुश हुआ। एक तोला सोना… लाश की राख में … सोचकर उसकी प्रसन्नता का पारावार न रहा। उसे पहली बार पता चला कि जली हुई लाश में भी सोना हो सकता है। उस दिन उसे जीने का नया रास्ता मिल गया।

दूसरे दिन से भीमा ने उस समूचे क्षेत्र की खोजबीन शुरु की। नदी-नालों में बहाई गई लाशों को टटोलने लगा। लाशों की राख को छलनी से छानने लगा, जिससे रोज़ ही उसे राख में सोने के कण मिलने लगे थे। बाली, अंगूठी, नथ, पुतली, चूड़ी, उसे रोज़ कुछ न कुछ मिल ही जाता था।

भीमा का यह नया काम ज़ोरशोर से चलने लगा। वह रोज़ आकर राख छानता। उसने समझ लिया था कि आग के दबाव से लाश के शरीर पर पहना गया सोना पिघलकर उसकी हड्डियों में घुस जाता है। वह जली हुई हड्डियों को चूर-चूर कर सोने के कण निकाल लेता। खोपड़ी को तोड़ता, कलाई कुचलता मगर उसमें फँसा हुआ सोना निकाल ही लेता।

शाम को कुर्ला के बाज़ार जाकर सोना बेच देता और नकद रकम जेब में डालकर नाबदा के लिए खजूर खरीदकर घर लौटता। बिना किसी बाधा के उसका कामधाम चल रहा था।
भीमा मुर्दे की राख छानकर अपनी आजीविका चला रहा था इसलिए वह जीने-मरने के बीच का अंतर ही भूल गया था। उसने बस इतना समझ लिया था कि जिस राख में सोना मिल जाए, वह अमीर व्यक्ति का और जिसमें सोना नहीं होता, वह गरीब व्यक्ति का मुर्दा है। ज़िंदा रहे तो अमीर और मरे भी अमीर ही। गरीब को तो मरना ही नहीं चाहिए। अपमानित सेवक को जीने और मरने का कदापि अधिकार नहीं है। यह बात वह ताल ठोंककर कहने लगा था। उसका मत था कि जो मरते वक्त तोलाभर सोना अपनी दाढ़ में दबाकर मरता है, वही भाग्यशाली होता है।

भयावह बेरोज़गारी ने उसे उग्र बना दिया था। वह रात-दिन मरघट के चक्कर लगाया करता था। मुर्दा ही उसके जीवन का साधन बन गया था। उसका जीवन मुर्दों के साथ एकरूप हो गया था।

उन दिनों उस क्षेत्र में अनेक चमत्कार घट रहे थे। गाड़े गए मुर्दे बाहर निकाले जा रहे थे। किसी साहूकार की युवा बहू की लाश मरघट से नदी पहुँच गई, इस घटना से चारों ओर डर फैल गया था। लाशें नदी तक कैसे चली जा रही हैं यह आश्चर्य की बात थी। पुलिस विभाग ने निगरानी बढ़ा दी थी क्योंकि उन्हें संदेह था कि कोई इसतरह लाशों को खोदकर निकाल रहा है। मगर मुर्दों की निगरानी करना आसान नहीं था।

सूरज ढल गया। चारों ओर अंधेरा छा गया। भीमा की बीवी ने उसे खाना परोसा, वह गंभीरता से भोजन करने लगा। बीवी समझ गई कि उसका शौहर आज फिर कहीं जाने वाला है। उसने धीरे से कहा, ‘आज कहीं जा रहे हो क्या? मुझे लगता है कि हमें यह काम नहीं करना चाहिए। कोई दूसरा काम ढूँढ़िये। मुर्दा, मुर्दे की राख, सोना, इस पर चलने वाली हमारी गृहस्थी… सब कुछ गलत है। लोग बुरा-भला कहते हैं…’

‘तुम चुप रहो!’ बीवी की बात सुनकर भीमा दुखी हुआ। उसने चिढ़कर कहा, ‘मैं कुछ भी करूँ, किसी का क्या जाता है? मेरे घर का चूल्हा ठंडा पड़ जाए तो क्या कोई आकर उसे जलाएगा?’

‘ऐसी बात नहीं है…’ शौहर का क्रोधित चेहरा देखकर उसने धीमे से कहा, ‘भूत-प्रेत की तरह घूमना ठीक नहीं है। मुझे डर लगता है इसलिए कह रही हूँ।’

‘मरघट में भूत होते हैं, तुझे किसने बताया?’ अरे, ये मुंबई ही भुतों का एक बाज़ार है। सचमुच के भूत तो घर में रहते हैं और मरे हुए उस मरघट में सड़ते हैं। भूत गाँवों में पैदा होते हैं… जंगल में नहीं।’ भीमा ने कहा।

उसकी बात सुनकर वह चुप हो गई। भीमा जाने की तैयारी करने लगा। उसने गुस्से से कहा, ‘मुंबई में दर-दर की ठोकर खाकर भी मुझे काम नहीं मिला मगर मुर्दों की राख छानकर सोना मिल रहा है। जब मैंने पहाड़ तोड़े तो महज़ दो रूपये मिले पर अब यह राख मुझे दस रूपये भी दिला देती है…’ कहते हुए वह बाहर निकल पड़ा। काफी रात हो चुकी थी। चारों ओर गहरी चुप्पी छाई हुई थी। मगर भीमा चल रहा था।

भीमा अंधेरे में चलता चला जा रहा था। उसने सिर पर साफा लपेटा, उसके ऊपर बोरा ओढ़ लिया। उसने कमर कस ली थी। बगल में एक नुकीली सब्बल लेकर वह लम्बे डग भर रहा था। सुबह एक साड़ी, एक लहँगा-कमीज़, खजूर… अभी वह इतना ही सोच पा रहा था। उसका दिमाग खराब हो चुका था।

माहौल बोझिल था। पल-पल गंभीर होता जा रहा था। कभी-कभी सियारों का कोई झुंड हुँआ-हुँआ करता हुआ निकल जाता था। एकाध साँप सरसराते हुए रास्ता काट रहा था। दूर कहीं कोई उल्लू बोल रहा था, जिससे माहौल और भयानक लग रहा था। वह निर्जन जंगल सुनसान था।

आहट लेते हुए भीमा गाँव के पास पहुँचा। वह दूर तक देखते हुए नीचे बैठ गया। गाँव में सन्नाटा छाया हुआ था। अचानक किसी के खखाँरने-थूकने की आवाज़ गूँज जाती थी। कोई दिया टिमटिमा जाता था। परिस्थिति भीमा के अनुकूल दिखाई दे रही थी। वह खुश हुआ। उसने झटपट मरघट में प्रवेश किया और साहूकार की ताज़ा कब्र खोजने लगा। फूटी हँड़िया, टूटी डंड़ियाँ हटाते हुए भीमा इस कब्र से उस कब्र पर कूद-फाँद कर रहा था। हरेक कब्र के पास वह माचिस की तीली जलाकर देखता चला जा रहा था।

आसमान में घने बादल छाए हुए थे। अंधेरा और गाढ़ा लग रहा था। अचानक बिजली चमकी, ऐसा प्रतीत हुआ मानो वह बादल के कोने में अटक गई हो। बारिश होने की संभावना बढ़ गई थी। भीमा घबराया क्योंकि उसे चिंता थी कि अगर बारिश हो गई तो उसे नई कब्र खोजने में दिक्कत होगी। वह फुर्ती दिखा रहा था, पसीना-पसीना हो रहा था, हड़बड़ा रहा था।

मध्यरात्री तक उसने समूची मरघट छान मारी। एक सिरे से दूसरे सिरे तक उसने खोजा। कहीं न मिलने पर वह डर से ठिठक कर बैठ गया। हवा चल रही थी। पेड़ की पुरानी शाखें चरचरा रही थीं। ऐसा लग रहा था मानो कोई दाँत पीस रहा हो! साथ ही भयानक गुर्राने की आवाज़ भी महसूस हो रही थी। कोई गुर्राते हुए, दाँत चियराते हुए मिट्टी खोद रहा था। उसे आश्चर्य हुआ। वह आगे सरका मगर तब तक चुप्पी छा गई थी। आवाज़ शांत हो गयी थी। तभी अचानक उसे लगा कि कोई हाथ-पैर फटकार रहा है। वह चमककर वहीं थम गया। उसके शरीर में डर की लहर बिजली की तेज़ी से सिर से पैर तक दौड़ गई। वह ज़िंदगी में पहली बार भयभीत हुआ था।

परंतु दूसरे ही पल उसने खुद को सम्हाला। वास्तविकता समझ में आने पर वह खुद पर शर्मिंदा हुआ। वहीं पास में नई कब्र थी। दस-पंद्रह सियार इकट्ठा होकर चारों ओर से उसे खोद रहे थे। उन्हें मृत देह की गंध मिल गई थी। कब्र के ऊपरी पत्थर के बजाय वे दूर से ही सेंध लगाने लगे थे। कब्र को आजू-बाजू से तोड़ने का काम वे कर रहे थे। हालाँकि उनमें आपस में भी भयानक प्रतिद्वंद्विता छिड़ी हुई थी। सबसे पहले मुर्दे के पास कौन पहुँचेगा, इसके लिए वे एकदूसरे पर गुर्रा रहे थे। बार-बार नाक से सूँघ रहे थे। लाश की गंध पाते ही पूरी ताकत लगाकर फिर से मिट्टी खोदने लगते थे।

क्या हो रहा है, यह समझते ही भीमा का दिमाग खराब हो गया। उसने एक बड़ी छलाँग लगाई और सीधे कब्र पर जा बैठा। कब्र पर जो पत्थर रखे गए थे, उन्हें उठा-उठाकर उसने सियारों की टोली पर हमला बोल दिया।

अचानक हुए इस हमले से सियार हड़बड़ा गए, थोड़ा पीछे हटे परंतु वहीं जमकर बैठ गए।

एक सियार ने भीमा को देख लिया और वह पागलों की तरह भीमा पर टूट पड़ा। उसने झपटकर भीमा को काटा और दौड़ पड़ा। भीमा अपने ऊपर ओढ़े हुए बोरे के फटने से दुखी हो गया। वह सिहर उठा। अपने दाँतों में फँसे बोरे के टुकड़े झटककर सियार फिर भीमा पर टूट पड़ा। इस बीच भीमा भी उससे जूझने के लिए अपनी नुकीली सब्बल लेकर तैयार हो गया था। सियार सामने दिखते ही उसने अपनी सब्बल से भरपूर वार कर दिया। प्रहार से सियार ने वहीं छटपटाते हुए प्राण त्याग दिये। उसके मरते ही वहाँ संग्राम छिड़ गया। भीमा ने कब्र खोदना शुरु किया। मगर अगले ही क्षण शेष सभी सियारों ने उस पर हमला बोल दिया। भयानक युद्ध छिड़ गया।

तब तक भीमा ने आधी कब्र खोदकर लाश बाहर निकालना शुरु कर दिया था। मगर सियारों के हमले से वह सिटपिटा गया और उसने सब्बल से अपना बचाव करना शुरु किया।

चारों ओर से सियार उस पर चढ़ रहे थे। जब जहाँ से कोई सियार धावा बोलता, वह उधर ही सब्बल घुमा देता। सियार घायल हो-होकर गिर रहे थे और कभी-कभी उसकी बोटी नोंचने में सफल भी हो जाते थे।

गाँव के निकट ही यह अभूतपूर्व युद्ध चल रहा था। कुंतीपुत्र भीम का नाम धारण करने वाला यह आधुनिक भीम सियारों से लड़ रहा था। कल का भोजन जुटाने के लिए, लाश के लिए वह अपनी समूची ताकत के साथ लड़ रहा था। पशु और मनुष्य का मृतदेह पर कब्जे के लिए भयानक युद्ध जारी था।

आसपास की प्रकृति नींद में डूबी हुई थी। मुंबई आराम फरमा रही थी। गाँव में सन्नाटा पसरा हुआ था। मगर मरघट में सोने और लाश के लिए संघर्ष बढ़ता जा रहा था। भीमा प्रहार कर सियारों को गिरा रहा था और सियार मौका ताककर उसकी बोटी नोच लेते थे। घायल सियारों की चीखें गूँज रही थीं। भीमा भी सियार द्वारा काटे जाने पर कराहने लगता था। गालियाँ बकने लगता था। उस मरघट में गाली, मारधाड़, गुर्राहट और चीखों का घमासान मचा हुआ था।

काफी देर बाद सियारों के हमले बंद हुए। अंधेरे में दुबककर सियार आराम करने लगे। भीमा ने इस बीच अवसर पाकर कब्र में लाश पर जमी हुई मिट्टी हटा ली। वह कब्र में उतरा। अचानक फिर से सियारों ने हमला किया और एक बार फिर उनमें संघर्ष होने लगा। अंततः भीमा की ताकत ने उनको परास्त कर दिया। अपनी पराजय स्वीकार कर वे वहाँ से हट गए।

भीमा ने तुरंत लाश के बगल में हाथ डालकर उसे बाहर खींच लिया। माचिस की तीली जलाकर लाश का निरीक्षण किया। बुरीतरह अकड़ी हुई लाश उसके सामने कब्र में खड़ी थी। उसने फुर्ती से लाश के हाथ टटोले। एक अंगूठी मिली। कान में बाली थी। भीमा ने उसे खींचकर निकाल लिया। अचानक उसे याद आया कि लाश के मुँह में भी सोना होगा ही। उसने मुँह में उंगलियाँ डालीं मगर मुर्दे के दाँत बुरीतरह बंद थे। उसने सब्बल को मुर्दे के जबड़े में घुसाकर उसे खोलने की कोशिश की। उसने जिसतरफ से सब्बल घुसाई थी, उसकी दूसरी ओर से अपनी उंगलियाँ डालीं। तभी अचानक सियारों ने हुआँ-हुआँ करते हुए भागना शुरु किया। उनके चिल्लाने से गाँव के कुत्ते भी जाग गए। कुत्तों ने भौंक-भौंककर पूरे गाँव को जगा दिया। कोई चिल्लाया, ‘अरे सियारों ने मुर्दा खा लिया रे… चलो…’ सुनते ही भीमा बुरी तरह घबरा गया। उसने मुर्दे के मुँह से एक अंगूठी निकालकर जेब के हवाले की और फिर जल्दबाज़ी में उंगलियों से मुर्दे की डाढ़ों के बीच टटोलने लगा। और…

और उसने उंगलियाँ बाहर निकालने की जगह जबड़े में घुसाई हुई सब्बल ही बाहर खींच लीं। उसकी उंगलियाँ सरौते में सुपारी की तरह खट् से मुर्दे के दाँतों के बीच फँस गईं। उसके अंग-प्रत्यंग में असहनीय दर्द की लहर उठी।

उसी समय उसे दूर दिखाई दिया कि गाँववाले लालटेन लेकर इसी दिशा में आ रहे हैं। भीमा डर गया। उसने अपनी उंगलियाँ निकालने के लिए दम लगाया। उसे मुर्दे पर गुस्सा आया। अपनी ओर आने वाले लोगों को देखकर वह और चिढ़ गया। उसने अपने हाथ का लोहा मुर्दे के सिर पर ज़ोर से दे मारा। उस झटके से उसकी उंगलियाँ और भी अटक गईं। मुर्दे के दाँत उसकी उंगलियों पर कस गए। उसके शरीर में झुनझुनी होने लगी। भीमा इस विचार से विवश हो उठा कि यही असली भूत है! यह मुझे पकड़वा देगा, लोग आकर इस मुर्दे के लिए मेरी जान ले लेंगे। या फिर मार-मारकर पुलिस के हवाले कर देंगे। इस सोच से भीमा झुँझला उठा। उसने होश खो दिया। वह पूरी ताकत से मुर्दे पर प्रहार करने लगा। वह ज़ोर से चिल्लाया, ‘हरामजादे, छोड़ मुझे!’

गाँववाले और नज़दीक पहुँच गए थे। भीमा फँसा हुआ था। अचानक उसे सूझा। उसने सब्बल मुर्दे के जबड़े में घुसाकर थोड़ा ज़ोर लगाया और उंगलियाँ खींच लीं। वे कट चुकी थीं, सिर्फ उनका थोड़ा-सा हिस्सा चमड़ी से चिपककर झूल रहा था। उसने उन्हें मुट्ठी में बंद किया और वहाँ से भाग निकला। भयंकर दर्द से जूझता हुआ वह भाग रहा था।

जब वह घर पहुँचा, उसका पूरा शरीर तेज़ बुखार से जल रहा था। उसकी हालत देखकर उसके घर में रोना-पीटना शुरु हो गया।

उसी दिन डॉक्टर को भीमा की दो उंगलियाँ काटनी पड़ीं।

और उसी दिन खदान का काम फिर से शुरु होने की खबर फैली। सुनते ही हाथी की तरह बलशाली भीमा बच्चे की तरह फूट-फूटकर रोने लगा। पहाड़ तोड़ने वाली उसकी दो उंगलियों को मरघट का सोना पाने की लालच में वो गँवा बैठा था।

हिंदी अनुवाद : उषा वैरागकर आठले

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