रंगमंच आज के दौर में अगर सक्रिय है या हो सकता है, तो एक जबर्दस्त कारण होगा,  इसके वास्ते जुनून की बदौलत. और इसी जोश और जुनून की बदौलत इप्टा की रायगढ़ इकाई पिछले बाईस वर्षों से (बल्कि सक्रियता के साल इससे अधिक हैं) राष्ट्रीय नाट्य समारोह छतीसगढ़ (पूर्व में मध्यप्रदेश) में आयोजित करती आई है. इस साल  इसका २२वाँ आयोजन वर्षांत यानि २६ से ३० दिसंबर २०१५ में रायगढ़ के किरोड़ीमल गवर्मेंट पॉलीटेक्निक कॉलेज के ऑडीटोरियम में हुआ. इस बार का आयोजन रंगमंच की दो महत्वपूर्ण हस्तियों दिवंगत जितेन्द्र रघुवंशी और जुगल किशोर की स्मृति को समर्पित था. भाग लेने वाले नाट्य-दल थे, कलामंडली (दिल्ली), सूत्रधार (आजमगढ़), इप्टा (रायगढ़), रायरा रिपर्टरी (मुंबई) और अग्रज नाट्य दल (बिलासपुर). प्रतिदिन शाम ७ बजे से थियेटर हाल पूरा भर जाता रहा. और मंच पर कलाकारों के लिये (संवाद/अभिनय पर) तालियाँ बार बार बज उठतीं. मतलब साफ़ है कि, दर्शक मंच पर जो कुछ चल रहा था, उससे पूर्णत: संलग्न थे !

ntfhbनाटकों के लिये प्यार इस शहर की संस्कृति में धमनियों में रक्त की तरह शामिल हो चुका है. रिक्शे वाले, पनवाड़ी, बजाज… होटल के कर्मचारी… हर आदमी नाट्य समारोह से अवगत था ! लाईट सप्लायर, टैंट हाउस के लोग, बढ़ई, मिस्त्री… हर कोई अपना काम (नाटक के संदर्भ में मंच सज्जा के लिये सेट तुरंत तैयार करना,  प्रकाश व्यवस्था का संयोजन) ऑन-द-स्पॉट कर रहा था, पुरी कुशलता से… नाटक की पुरी तकनीक से लंबे समय से परिचय के बिना इतना कौशल हो नहीं सकता. यह इन पंक्तियों के लेखक का व्यक्तिगत मत है, जिसका इस सब में बतौर दर्शक शामिल होने का पहला अवसर था, लेकिन नहीं लगता कि वर्तमान दौर में कोई और शहर नाटक को लेकर इतना सतर्क और अभ्यस्त होगा…

आम जनता से प्राप्त चंदे का भी इस आयोजन में बड़ी भूमिका रहती है. और यह सब नाट्य-प्रेम के बिना संभव नहीं कि इतना बड़ा आयोजन इतनी सफलता से आयोजित किया जा सके. रंग समीक्षक और लेखक डॉ. अजय जोशी ने सही कहा, “जिस बात ने मेरा ध्यान सबसे ज्यादा खींचा, वह है कि रोज़ाना इतनी बड़ी संख्या में दर्शकों की उपस्थिति. यद्यपि रघुवीर यादव अपने सितारा छवि से आकर्षण का केन्द्र रहे ही, लेकिन अन्य नाटकों को देखने भी प्रेक्षागृह खचाखच भरा रहा. ऐसे वक्त में जब रंगमंच दर्शकों के लिये संघर्ष कर रहा है और उन्हें  टेलीविजन और सिनेमा से दूर करने के लिये नए तरीके तलाश रहा है, यह एक संतोष देने वाली बात थी.”

नुगरा का तमासा

पहले दिन सुमन कुमार के निर्देशन में दिल्ली से आई कलामंडली ने एकल नाट्य “नुगरा का तमासा” पेश किया. संगीत और संवाद अदायगी के दम पर टिका यह एकल नाट्य निर्देशक – अभिनेता सुमन कुमार जी  के लिये शायद हर प्रस्तुति में एक चुनौती रहता होगा. क्योंकि किस्सागोई की शैली में और पंचतंत्र की बुनावट में कहानियों के भीतर कहानियों  की पेशकश पार्श्व संगीत के सहारे आगे बढ़ती है. एक लोककथा, जिसमें कथा यह है कि एक बालक के जन्म के समय पंडित यह घोषणा करता है कि  यदि छह: साल से चौबीस वर्ष की आयु के बीच उसपर किसी युवती या स्त्री की छाया पड़ गयी तो उसे सांप डस लेगा. इस तरह उस बालक की शादी चार साल में कर दी जाती है. जब वह चौबीस का होता है तो अपनी दुल्हन को गौना कराके लाने चल पड़ता है. इस यात्रा में वह पहली बार खुली दुनिया को देखता है… पेड़-पौधे, नदी नाले,, नीला आसमान… तभी एक सांप उसके सामने आकर खड़ा हो जाता है. अब शर्त यह है कि वह उस सांप की जान कालबेलियों से बचाए जो पेशगी लेकर उसे पकड़ने निकले हैं, या उसके डसने से अपनी जान गंवाए. अगर वह उसे कालबेलियों से बचा लेगा तो सांप उसे खजाने का पता बता देगा. यहाँ कथा बाज़ार व्यवस्था और मनुष्य के लोभ पर सेटायर करती है. कालबेलियों से झूठ बोलकर युवक सांप की जान बचा लेता है. लेकिन उसे शंका रहती है, क्या वास्तव में सांप को खजानों का पता होता है ? इस कहानी में से अब दुसरी कहानी निकलती है. कालबेलियों से पूछने पर वे कहते हैं कि शायद ऐसा हो. उन्हें तो किसी सांप ने नहीं बताया. लेकिन एक बूढी स्त्री को किसी सांप ने बताया था. अब उस बूढी स्त्री की कथा चलने लगती है, उसने एक बार एक बड़े ही जब्बर सांप को भाई बनाया था. वह जब्बर सांप एक उपदेशक के प्रभाव से अहिंसावादी बन गया था.  वह जब्बर सांप जिसका खौफ़ बच्चे तक नहीं खाते थे, उस स्त्री को राखी बांधने पर अपने घर ले गया था, क्योंकि स्त्री अपने पति के यहाँ उपेक्षित थी. (बाद में उसका पति उसे इतने दिन घर से बाहर रहने पर भी अपना लेता है. कथावाचक का कटाक्ष है कि ‘धन की माया से सब संभव है’) वह स्त्री वहाँ अकूत धन-संपदा देखती है. उदार सांप उससे कहता है कि जब तक उसका जी चाहे वह वहाँ रह सकती है. स्त्री संकोच के साथ रहने लगती है. लेकिन उसका डर सही साबित होता है. साँपिन उसको सौत मानती है और सौतिया डाह से सुलगती रहती है. संपोलों से स्त्री माँ की तरह प्यार करती है, लेकिन एक बार दुर्घटना वश जब संपोले  उसके तैयार किए गर्म दूध से जल जाते हैं तो  सांप सांपिन से उसकी सुरक्षा की दृष्टि से उसे वापस अपने घर जाने को कहता है. स्त्री वैभव के संसार से वापस अपने लोक में लौटती है. जहाँ उसे पति स्वीकार लेता है. कथावाचक पुरी  कथा को अपने कायिक अभिनय और वाक् कौशल से आकर्षक बनाता चलता है… जबकि बाद में सुमन कुमार स्वीकारते हैं कि उनके नाटक की कोई तय स्क्रिप्ट नहीं होती और जो उन्हें सूझता है, वे संवाद बनाते जाते हैं. इस नाटक प्रदर्शन में भी एक बार वे घटनाक्रम भूल गए थे और वह दृश्य छूट गया, तो उन्होंने उसकी भरपाई की, आगे उसे कथा में स्पष्ट करके. वह दृश्य है, कि कालबेलियों  के जाने के बाद जब युवक सांप को, जिसे अपने पात्र में छुपा लिया था, निकालता है तो सांप अपने वायदे (जीवनदान देगा) से मुकर जाता है. और उसे सात दिनों की मोहलत देता है. अगर युवक सात दिनों में पत्नी से मिलकर नहीं लौटता तो वह उसकी पत्नी और सबको डस लेगा. उदास युवक अपनी पत्नी से पूछने पर बताता है कि मृत्यु उसकी प्रतीक्षा कर रही है. सात दिन की आयु ही उसके पास बची है. पत्नी उसे कहती है कि हमें हर दिन उत्सव की भांति जीना चाहिए. सात दिन तो बहुत हैं ! युवक यह सुनकर अपनी दुल्हन के साथ ये मोहलत के दिन मज़े से काट देता है. निर्धारित दिन युवक की पत्नी सांप के पास जाकर कहती है कि मुझे डस लो. सांप कहता है कि नहीं. वह युवक को ही डसेगा. दुल्हन कहती है कि यह अन्याय है. जिसने तुम्हारी जान कालबेलियों से बचाई, तुम उसी के प्राण ले लेना चाहते हो. सांप कहता है कि यह (धोखाघड़ी करना) तो उसे ‘मनुष्यों ने ही सिखाया है’ !

Day One | Nugra Ka Tamasa
Day One | Nugra Ka Tamasa

पत्नी तर्क देती है. किसी से पुछवा लेने को कहती है. सांप कहता है ठीक है, यदि तुम पंच बैठाना चाहती हो तो ठीक है. जा उस बुढ़िया से पूछ ले. अगर उसने कह दिया कि मैं गलत कर रहा हूँ, तोमैं तुम्हारी पति की जान बख्श दूँगा. युवती उस बूढी से पूछती है तो वह कहती है सांप ठीक कर रहा है !

बुढिया कहती है कि जब तक वह जवान थी. किसी लायक थी तब तक तो  मुझे साथ रखा. जब मैं वृद्धा हो गई. किसी काम की ना रही तो मुझे उपेक्षित कर छोड़ दिया गया. सांप ठीक कर रहा है. इसके बाद बूढी गाय से पुछवाया जाता है तो उसका उत्तर भी वही होता है कि सांप ठीक कर रहा है. क्योंकि गाय के दुधारू नहीं रहने से उसे भी उपेक्षित कर दिया गया है. युवती इसके बाद अंतत: लोमड़ी से पूछती है. लोमड़ी कहता है कि मैं यहाँ इस इंतजार में बैठा हूँ कि कब यह नुगरा तेरे पति को काटे, कब वह मरे और कब मैं अपने और अपने भूखे बच्चों के लिये भोजन लेकर जाऊं. और तुम मुझे पंच बनाती हो ! खैर ठीक है, सांप तो उसे काटेगा ही. तब भी चलो मैं पंच बन ही जाता हूँ. मूर्ख सांप से लोमड़ी कहती है कि वह सिर्फ़ उसके कहने पर मामले को मानेगी नहीं. जो हुआ था उसे पूरा दोहरा कर दिखा. साँप उस घटनाक्रम को दोहराते हुए अपने को सही सिद्ध करने के लिये वापस डिब्बे में चला जाता है. और फिर से कैद हो जाता है. चालाक लोमड़ी युवक से कहती है कि सांप को मार डालो !
यह कथा का अंत होता है. लेकिन निर्देशक इसमें अपनी ओर से एक दृश्य और प्रश्न जोड़ता है. दर्शकों में से एक बच्चा चीखकर  कहता है कि “यह गलत है !” कथावाचक उसे मंच पर बुलाता है, यह कहकर कि भीड़ में अँधेरे में से कहना आसान है कि ‘यह गलत है’. बच्चा कहता है कि यह गलत इसलिए है कि हमारे स्कूल की किताब में लिखा है कि हर जीव को जीने का अधिकार है. सांप को भी है.

निर्देशक कहता है कि हाँ यह तो सही है लेकिन हमने ही साँपों को यह ‘विष’ दिया है. मूल लोककथा में यह अंतिम अंश नाटककार ने जोड़ा है, जो एक सन्देश की तरह है. आखिर मनुष्य का ही यह द्वेष, लोभ, ईर्ष्या, फ़रेब, धोखा-वायदा-खिलाफ़ी जैसी वृतियां हैं. समाज में यह सब है तो सुंदर और सहजीवी समाज की रचना कैसे की जा सकती है ?

इप्टा के इस नाट्योत्सव में एक परंपरा रही है कि नाटक के बाद रात्रि भोजन से निपट कर नाटक दल, विशेषकर निर्देशक से नाटक पर एक अनौपचारिक बातचीत की जाती है. सुमन कुमार ने इस नाटक की रचना, शिल्प पर बात की. कई सवालों के ज़बाव भी दिए. उन्होंने कहा कि उनके प्रस्तुति की कोई स्क्रिप्ट नहीं है और जैसा उन्हें सूझता जाता है, वे संवाद बना लेते हैं. पुणे से आये कला समीक्षक अजय जोशी के इस प्रश्न पर कि क्या इतने विविध पात्रों को निभाते हुए उन्हें कभी अलग अलग ‘मैनरिज्म’ के विषय में नहीं सोचा ? सुमन जी ने कहा कि नहीं. वे सहज रूप में इसे करते रहे हैं, और शायद आगे कभी इसके बारे में सोचें.  बातचीत में साजिंदों ने कहा कि वे कहानी को आत्मसात कर चुके हैं और सुमन जी क्या करने वाले हैं और जैसे वो अभिनय करेंगे वे, उसी के अनुरूप संगीत रचना कर देंगे. यह बात महत्वपूर्ण है, क्योंकि इस नाटक में तो संगीत ही वास्तव में इसकी आत्मा थी !

कसाईबाड़ा

दूसरे दिन सूत्रधार, आजमगढ़ ने शिवमूर्ति की प्रसिद्ध कहानी ‘कसाईबाड़ा’ का मंचन किया. युवा नाटककार अभिषेक पंडित का यह नाटक नाट्योत्सव के बाकी नाटकों में उल्लेखनीय और प्रदर्शन की दृष्टि से बढ़िया रहा. कहानी से न्याय करते हुए यह प्रस्तुति वाकई युवा निर्देशक और अभिनेताओं का उत्कृट प्रयास कहा जायेगा. भोजपुरी लोकगीतों (कुछ को निर्देशक अभिषेक पंडित ने लिखा है) और शनिचरी की भूमिका में ममता पंडित, अधरंगी की भूमिका में अंगद कश्यप ने खासा प्रभाव छोड़ा.
नाटक का कथानक यह है कि गाँव में प्रधान सामूहिक विवाह कराकर गाँव की गरीब बेटियों का ‘उद्धार’ करता है. लेकिन उनमें से ब्याही गई एक लड़की किसी तरह भाग आती है और शनिचरी, जिसकी भी बेटी की शादी हुई थी, को बताती है कि शादी धोखा थी, दरअसल प्रधान ने लड़कियों को बेच दिया है. शनिचरी की बेटी को भी देह व्यापार के धंधे में झोंका गया है. यह सुनकर शनिचरी प्रधान के खिलाफ मोर्चा खोल देती है. उसे संघर्ष के गांधीवादी तरीके से लड़ने को प्रधान बनने का महत्वाकांक्षी गाँव का मास्टर ‘लीडर जी’ उकसाता है. दरसल शनीचरी को वह अपने उद्द्येश्य के लिये मोहरा बनाता है. प्रधान अनशन पर बैठी शनिचरी देवी को धोखे से विष देकर मार डालता है. कहानी खत्म होती है, जब लीडर कहता है कि राजनीति में कामयाब होकर सत्ता हासिल होते ही वह शनिचरी की हत्या की जांच कराएगा. गाँव का प्रधान, पुलिस, लीडर जी सब दरअसल अपने अपने स्वार्थ के पुतले हैं, और गाँव की स्त्रियों की स्थिति दोयम दर्जे की है. इस तरह पूरा गाँव लीडराइन के शब्दों में ‘कसाईबाड़ा’ है…  ग्रामीण राजनीति में मात्र उपयोग होती, पुरुषवादी वर्चस्व से छीजती स्त्री का तीखा और कड़वा यथार्थ है.

Day Two | Kasaaibada
Day Two | Kasaaibada

युवा और गैर-प्रोफेशनल कलाकारों ने मंच पर कथानक को बखूबी पेश किया. नाटक खत्म होने के बाद देर तक हाल तालियों से गूंजता रहा, यह इसी बात का साक्ष्य है कि दर्शकों को अभिनय प्रभावित करने में सफल रहा है. ‘कसाईबाड़ा’ का संगीत उल्लेखनीय है. और इसमें निर्देशक अभिषेक पंडित का श्रम और संगीत कौशल झलकता है. शीर्षक गीत, जो नाटक के अंतिम दृश्य में चलता है… “कसाईबाड़ा भईल गाँव सारा हो… सगरो बसेले बटमार !”

कसाईबाङा भईल गाँव सारा
सगरो बसे ला बटमार हो रामा हो सगरो बसे ला बटमार
घेरले बा दुःखवा के कारी बदरीया हो
अभइन लागेला अन्हियार हो  रामा हो
अभइन लागेला अन्हियार
पापी बहेलियन के घूरे नजरीया हो
चिरइ करेली हाहाकार
हो रामा हो चिरइ करेली हाहाकार
इज्जत धरमवा के डूबे नेवरीया
केहु नाहि दिखे खेवनहार हो रामा हो….
केहु नाहि दिखे खेवनहार
अन्हर बहिर गुँग बनल समाजी हो
केहु नाहि करेला बिचार हो रामा हो…..
केहु नाहि करेला बिचार
कसाईबाङा भइल …………….

नाटककार द्वारा इस्तेमाल किए गए सभी गीत कर्णप्रिय हैं ही, साथ ही स्थितियों पर कटाक्ष भी करते हैं.

सभी पात्रों ने अपने संवाद और अभिनय से अपनी छाप छोड़ी। कम और न्यूनतम ख़र्च पर एक बढ़िया नाटक कैसे पेश किया जा सकता है, निर्देशक और कलाकारों ने बख़ूबी दिखाया। लोकगीतों का सटीक इस्तेमाल दृश्य और कथ्य का महत्वपूर्ण हिस्सा है। अधरंगी और शनिचरी के किरदार ऐसे हैं जो पूरे समय दर्शकों को बांधे रखते हैं। मूल कहानी के रूपांतरण में निर्देशक ने कुछ अलग करने का प्रयास किया है, जिसमें सह- निर्देशक अंगद कश्यप का भी सहयोग है। जैसे शनिचरी और अधरंगी का प्रधान और उसके बेटे के पुतलों को पीटना। या अधरंगी का दर्शकों से संवाद और सवाल … ७० मिनट का यह नाटक पूरे समय तक दर्शकों को बांधे रखता है। यक़ीनन कहानी ज़बरदस्त है, लेकिन नाटक की अपनी तकनीक, शिल्प, अदाकारी और प्रकाश संयोजन आदि की अदायगी ने एक बढ़िया नाटक दर्शकों के सामने पेश किया है। नाटक जीवन का रूपांतरण है, कसाईबाड़ा उसी तरह जीवन के यथार्थ को दृश्य बिंबों के सहारे बख़ूबी प्रस्तुत करती है।

खास बात जो अभिषेक ने नाटक के बाद बातचीत में कही कि, नाटक में कुछ कमियों जैसे अभिनय, प्रकाश, संगीत आदि को वे गौण समझते हैं. मुख्य बात है कि नाटक हो रहा है. उन्होंने कहा कि आजमगढ़ जैसी जगह पर जहाँ रंगमंच के नाम पर कुछ नहीं हो रहा था, वहाँ नाटक हो रहे हैं. यही बात उनके लिये संतोषजनक है. (इसलिए अन्य जगहों पर जहाँ रंगमंच शून्य है, उनका उदाहरण प्रेरणास्पद है) एक बड़ी महत्वपूर्ण बात उन्होंने कही कि वे मंच सज्जा पर अधिक धयान देने और फ़िज़ूल खर्च के पक्ष में नहीं है. अगर इतने महँगे सेट ना लगाकर कुछ पैसे कलाकारों को, जो इतना रिहर्सल करते हैं… मेहनत करते है,   दिए जांय तो वह ज्यादा जरुरी है.  अभिषेक ने बातचीत में बताया कि वे कहानीकार के एक भी वाक्य/संवाद को नहीं छोड़ते. (भले ही संवाद और दृश्य क्रम आगे पीछे कर लें)   नाटक के अंत के विषय में उन्होंने प्रश्नों के ज़बाव में कहा कि  कसाईबाड़ा में कहानी उस दृश्य पर समाप्त हो जाती है कि लीडर अपनी डायरी में नोट करता है कि विधायक बनने के बाद सबसे पहला काम शनिचरी मर्डर केस की जांच कराएगा. तो उन्होंने सोचा कुछ जोड़ा जाय तो अंत इतना फ्लैट ना होकर अपीलिंग लगे, तो उन्होंने अंतिम नाटकीय दृश्य उस परंपरा में से लिया जब किसी डायन बताकर स्त्री पर सिन्दूर मारे जाते हैं. जोशी जी ने कहा कि यह तो उस विकृति को स्वीकारना हुआ कि स्त्री कहानी में तो उपेक्षित है और उसका शोषण होता है ! नाटक का अंत स्त्रियों के अंतर में दबे संघर्ष की अभिव्यक्ति कर सके. कोई गीत आदि… तो यह करें. इसे अभिषेक पंडित ने एक सुझाव के तौर पर स्वीकार कर लिया कि वे अगली प्रस्तुति में ऐसा कुछ करेंगे. हालांकि उन्होंने नाटक के अंत को बदलने  या  कोई आशावादी दृश्य पेश करने की बात को नकार दिया. (क्योंकि कहा गया कि, कहानी की कथा काफी पुरानी है.) उनकी समझ से समाज में जो है इसमें वही है. इसे वे क्यों बदलें ? क्योंकि समाज में ही कोई आशा उन्हें नहीं दिखाई देती ! और कहानी में भी ऐसा है. ऐसी  एक सच्ची घटना है, जिसके  वे भी गवाह रहे हैं. तब किसी दबाव और असहयतावश वे चुप रह गए थे. तब जोशी जी ने कहा कि फिर तो उन्हें अपने नाटक के माध्यम से अपना वह गुस्सा और मुखर रूप से व्यक्त करना चाहिए !

बी थ्री

तीसरे दिन स्थानीय इप्टा के दल का शहीद अनवर लिखित “बी थ्री” खेला गया.  इसका कॉन्सेप्ट समकालीन है. किस तरह आधुनिक दौर में भी व्यक्ति का ‘सैन्यीकरण’ किया जा सकता है, इस बौद्धिक विषय पर एक शानदार मनोवैज्ञानिक नाटक को बड़ी श्रमसाध्य मंच परिकल्पना से निर्देशक अजय आठले ने युवा कलाकारों के माध्यम से प्रस्तुत किया. कहानी यह है कि इतिहास के प्रोफ़ेसर को कक्षा के बच्चे गम्भीरता से नहीं लेते. योरोप में हिटलर के फ़ासीवाद को पढाते हुए उसके छात्र यह नहीं मानते कि भारत में भी ऐसा हो सकता है. तब प्रोफ़ेसर कुछ इनोवेटिव ढंग से विषय को पढ़ाना शुरू करता है. फ़िल्में दिखाकर, वर्जिश और कड़े अनुशासन के नियम लागू कराकर वह अपने छात्रों की एक खास तरह से ‘कंडिशनिंग’ करना शुरू करता है. प्रोफ़ेसर की पत्नी कहती है कि वह भूल कर रहा है. उसे पहले उन्हें विकल्प देना चाहिए, फिर स्वयं चुनने की आज़ादी. मगर प्रोफ़ेसर अपने ‘प्रयोग’ के प्रति इतना मुग्ध और आश्वस्त होता है कि वह अपनी पत्नी की बातों को नहीं मानता.

लेकिन विषय में डूबते हुए युवा छात्र धीरे धीरे कट्टर होते जाते हैं. वे एक दल बनाते हैं… ‘ब्लैक बोर्ड ब्रिग्रेड’ यानि बी थ्री ! उनका एक खास नारा और अभिवादन होता है. वह नारा है ‘गर्व ही गुण है !” प्राइड इज द ओनली वर्च्यू…

लेकिन उन्हीं में से एक छात्रा प्रोफ़ेसर की इन बातों को स्वीकार नहीं पाती. और धीरे धीरे कट्टर और स्वयं को विशिष्ट / दूसरों से अलग होने के दम्भ में उन्मत्त होते जाते सहपाठियों को चेताती है.

एक रात प्रोफ़ेसर एक दु:स्वप्न देखता है कि उस छात्रा को बाकि छात्र घेर कर मारने बढ़ रहे हैं… वह डर जाता है. प्रोफ़ेसर की पत्नी कहती है यह सब वह बंद कर दे. वरना अंजाम बहुत बुरा होगा. उसनेउन्हें गिनी-पिग बना दिया है. प्रोफ़ेसर कहता है कि उसने जो कुछ किया, उसकी मंशा तो कोई बुरी नहीं थी. तुम तो जानती हो ना मैं गुनाहगार नहीं हूँ. आख़िरकार, उसे जब अपनी भूल का अनुभव होता है, वह कक्षा में सब छात्रों को कहता है कि दरअसल यह सब महज़ एक ‘प्रयोग’ था. लेकिन उसी समय वह अनहोनी हो गुजरती है, जिसकी भूमिका इतने समय से बन रही थी… आख़िरकार छात्रों में से एक हाशिए का छात्र उस छात्रा की हत्या कर देता है, क्योंकि वह प्रोफ़ेसर को भला बुरा कह रही थी और तर्क या प्रश्न कर रही थी… अंतिम दृश्य में पुलिस उस हत्यारे छात्र  को  गिरफ़्तार कर ले जा रही होती है और प्रोफ़ेसर अपराधबोध में डूबता जाता है.

Day Three | B 3
Day Three | B 3

यह नाटक एक बड़े मसले को पेश करता है. ‘नाजीवाद’, ‘रेजिमेंटेशन’ ‘अक्टूबर क्रांति’ आदि कई ‘टर्म्स’’ (शब्दावलियाँ) इसमें आती हैं. कथ्य अपनी व्याख्या और विश्लेषण की अपेक्षा करता है. सोचने पर बाध्य करता है और नाटक खत्म होने के बाद देर तक मष्तिष्क में प्रश्नों की भांति पीछा करता है.

मंच पर सभी अपने किरदारों से न्याय करते दिखे, लेकिन सबसे प्रभावशाली अभिनय रहा, कॉलेज के प्रिंसिपल और डायरेक्टर की भूमिका में  क्रमश: श्याम देवकर और सुरेन्द्र बारेथ का. बेहतरीन टाइमिंग और संवाद अदायगी ने दर्शकों को दाद देने पर मजबूर कर दिया. हालांकि अनुभवी अपर्णा श्रीवास्तव के लिये मंच – समय (च्द्यठ्ठढ़ड्ढ च्र्त्थ्र्ड्ढ) की गति असामान्य रूप से कुछ तेज थी और वे कुछ हड़बड़ी में लगीं. शायद यह उनकी कमी नहीं हो या उन्हें कोई टिक कर डिलीवर किए जाने वाले संवाद नहीं मिले हों. पत्नी और प्रोफ़ेसर के साथ बहस के क्षणों में दोनों किरदारों के बीच कुछ दूर दूर खड़े संवाद करना भी खटकता है. संवाद के दौरान मंच के स्पेस का थोड़ा बेहतर इस्तेमाल  हो सकता था. इसलिए दोनों किरदार आपसी दृश्यों में थोड़े बिखरे हुए नज़र आये. हो सकता है यह इन पंक्तियों के लेखक की  समझ और दृष्टि की सीमा हो, इसलिए यह दावा नहीं किया जा सकता कि कुल प्रभाव में ये अल्पप्रमुख बिन्दु कहीं भी बाधक हुए. मंच संगीत का दृश्यों के बीच और दौरान ‘फिलर’ के रूप में इस्तेमाल निस्संदेह बढ़िया था.

‘बी थ्री’ एक सशक्त नाटक है. हो सकता है, थोड़ी और कसावट के बाद नाटक और जोरदार तरीके से दर्शकों तक पहुँचेगा.

पियानो

बाइसवें नाट्य समारोह का चौथा दिन रंगमंच की एक प्रख्यात शख्सियत को सातवें शरदचन्द्र वैरागकर स्मृति सम्मान से नवाजे जाने का दिन था और उसी शाम उनका नाटक भी खेला गया. यह सम्मान नाट्यकर्म को समर्पित व्यक्तित्व और शानदार अभिनेता, गायक, वादक , मंच सज्जाकार, लेखक रघुवीर यादव को दिया गया और इस तरह उनका नागरिक अभिनंदन भी हुआ. सम्मान समारोह प्रात: ११ बजे से शुरू हुआ. और यह एक अद्भुत समारोह था. पूरे शहर की कई सारी सांस्कृतिक संस्थाएं इस दिन शरतचन्द्र वैरागकर स्मृति सम्मान पाने वाले रंगकर्मी को स्वयं भी सम्मानित करने आयीं. शाल, नारियल और गेंदे की माला से रघुवीर यादव को ढांप दिया गया. ज़ाहिर था कि वे भावुक हो जाते, हुए भी. उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा कि ऐसे सम्मान ने उनमें नई उर्जा भर दी है. वे और भी अच्छा काम करने को तैयार हो गए हैं. रघुवीर जी ने कहा कि ये बहुत ही मीठा सा भार उनपर डाल दिया गया है !

संध्या को उनके निर्देशित – अभिनीत रायरा रिपर्टरी का नाटक “पियानो” खेला गया. यह नाटक सत्तर के दशक का मूल फ्रेंच में फेरेंस कैरिन्थी लिखित “स्टेंवेग्रैंड” का रघुवीर यादव द्वारा किया गया हिंदी रूपांतरण है.  शाम सात बजे से पूर्व ही रंगमंच के एक महत्वपूर्ण अभिनेता और सिने कलाकार को साक्षात् अभिनय करते देखने के लिये दर्शकों की भारी भीड़ की उम्मीद थी. लोग याद कर रहे थे कि उन्होंने ‘मैस्सी साहिब’ देखी थी… ! और ऐसा ही हुआ. पूरा हाल और ऊपर की बाल्किनी भर गयी थी. इसके लिये स्थानीय इप्टा के साथियों  ने व्यवस्था की पुरी कमान संभाल  रखी थी.

Day Four | Piano
Day Four | Piano

रघुवीर यादव प्रकाश गुल होते ही मंच पर मोमबत्ती के रुमानी रौशनी में बाँसुरी बनाते हुए नज़र आये और दर्शकों ने तालियों से अभिनंदन किया. “पियानो”नाटक की कथावस्तु भी व्यक्ति की मनोदशा की कहानी है, लेकिन ‘बी थ्री’ से अलग और निर्देशक अभिनेता रघुवीर यादव इसे काफ़ी ‘विट’ के साथ पेश करने की कोशिश करते हैं. कहानी यही है कि एक मध्यमवर्गीय लाइब्रेरियन अपने अकेलेपन की ऊब को दूर करने के लिये मिसेज डिसिल्वा के पियानो बेचने वाले विज्ञापन को देखकर उन्हें फोन करता है. मिसेज डिसिल्वा दूसरे विश्वयुद्ध से पहले के इस खूबसूरत बादामी रंग के पियानो की कीमत साठ हज़ार रखती हैं.  लेकिन चूँकि नायक को पियानो खरीदना नहीं है, वह तो बस दिल बहलाना चाहता है, इसलिए वह यूँ ही मोल भाव करता है. फिर कई सारे लोगों, जैसे पंजाबी रिटायर्ड सैन्य अफ़सर, बुढिया और उसकी नाती, वाद्य-यंत्र खरीदने बेचने वाला दलाल और उसकी बीबी आदि की आवाज़ में मिसेज डिसिल्वा को फोन करता है और पियानों खरीदने – बिकवा देने के बहानेसे खुद को बहलाता है, डिसिल्वा की हैरानी, उहापोह और परेशानी का मज़ा लेता है. रघुवीर यादव इन विविध किरदारों को निभाते हुए एक सिद्धस्त अभिनेता और मंच पर टाइमिंग में स्मार्ट एक्टर की तरह लगते हैं. लेकिन संवाद कई जगह औसत और हलके हो जाते हैं, और कई जगह अतिशय बनावटीपन आ जाता है, जो निस्संदेह रघुवीर यादव जैसे कलाकार के लिये, उच्च स्तर का अभिनय प्रतिमान रखने वाले अभिनेता के लिये आम दर्शक की उम्मीद टूटने जैसा और निराश करने वाला है. कहानी सीधी और सरल है लेकिन खूबी इसे बरतने की होती है. रौशनी अचरेजा ने मिसेज डिसिल्वा की भूमिका में बहुत ही साधारण सा अभिनय किया. लगा वे मंच पर केवल संवाद बोलकर मुक्त होने आई हैं. संवादों की अदायगी भी सपाट लगी. हर टेलीफोन काल के बाद अंतराल में वे केवल पानी का गिलास उठाकर घूंट भरतीं. क्या मंच पर करने को महज इतना ही निर्धारित था !

रघुवीर यादव और रौशनी अचरेजा के पुत्र अबीर यादव सूत्रधार की भूमिका में अपनी उम्र के हिसाब से ठीक लगे. वायलिन उन्होंने बढ़िया बजाया, हालांकि संवाद बोलने में लय की कमी दिखी.
नाटक में अंतिम दृश्यावलियाँ और अधिक उठान की मांग करती हैं, जब मिसेज डिसिल्वा को फोन करने वाला सब सच बता देता है और अपना अपराधबोध दूर करने के लिये संगीत बजाने को कहता है. साथ ही इस नाटक में अनंत: सन्देश यह है कि संगीत अकेले लोगों को पास लाता है, और दूरी कम कर देता है. चॉकलेट लेकर अंत में मिसेज डिसिल्वा के घर पहुंचकर नायक अपनी गलती के लिये क्षमा माँगता है और फिर सूत्रधार के वायलीन के साथ उसकी बाँसुरी और मिसेज डिसिल्वा का पियानो एक लय में संगीत का जादू जगाने लगता है…

रंगमंच में व्यक्तिवाद विषय पर यदि नाटक खेले भी जाते हैं तो उसमें अभिनय पक्ष का ताकतवर होना बहुत जरूरी है. “पियानो”,  इस फ्रेंच नाटक का हिंदी संस्करण इस नाट्य समारोह में आशातीत प्रभाव नहीं छोड़ सका. नाटक देखने के बाद लगा किसी टेलीविजन धारावाहिक की एक कड़ी देखी हो. रघुवीर जी की अदाकारी, यदि यह एक फिल्म होती, तो इससे कई गुना बेहतर होती,  इसमें कोई संदेह नहीं. कई बार लगा कि ‘ओवर एक्टिंग’ हो रही है. हो सकता है, यह इन पंक्तियों के लेखक का औसत बोध हो ! बहरहाल, एक बड़े अभिनेता को सामने अभिनय करते देखना हमेशा सुखद होता है. रघुवीर जी ने कई बेहतरीन नाटक और फ़िल्में की हैं. और उनकी बहुमुखी प्रतिभा किसी एक प्रस्तुति से परखी नहीं जा सकती, ना ही उनके संबंध में कोई स्थापना दी जा सकती है.

मुआवजे

बाइसवें नाट्य समारोह की अंतिम पेशकश अग्रज नाट्य दल, बिलासपुर का भीष्म साहनी का नाटक “मुआवजे” था. यह वर्ष 2015 भीष्म साहनी का शताब्दी वर्ष भी रहा है. साल भर देश में कई जगह कार्यक्रम हुए. और सम्भवत: साल का सबसे अंतिम काम यह नाटक रहा. हालांकि अपने पूर्व में तयशुदा कार्यक्रम के कारण इस नाटक को देखना संभव ना हुआ और मुझे 29 दिसंबर की रात ही स्टेशन की ओर चल देना पड़ा. ट्रेन 30 तारीख को थी ! यानि मध्यरात्रि के बाद… होटल ‘मिड टाउन’ में, जहाँ हम सभी ठहरे थे, भोजन के बाद संजय उपाध्याय जी और रघुवीर यादव जी की संगीत की महफ़िल सजी थी और जिस समय मैंने इप्टा, रायगढ़ के साथियों से विदा ली,  यह उठान पर आ रही थी…

ए सखी सावन आयो री… पिया को संदेसो ना लायो…री !!!
सब सखियाँ मोर झूला झूले, मैं तो थी मजबूर…
याद पिया की ऐसी आई…खड़ी रही मैं दूर !
काहे को जो बैरी… सावन आयो… री…!!
सब सखियाँ मोर झूला झूले, रिमझिम पड़े फुहार…
मैं ठाड़ी अम्बुआ के नीचे… अँखियन अँसुवन धार !

साथियों की हँसी… उल्लास और मस्ती… बज़्म छोड़कर जाते हुए मुझे लगता रहा है कि एक खास चीज छोड़कर जा रहा हूँ ! एक यादगार रात का हिस्सा ना बन सका… शायद लंबे वक्त के बाद यह मुझमें एक गहरा अफ़सोस उत्पन्न करे.

पूरा वक्त, दिसंबर 2015 का अंतिम हफ़्ता, रंगकर्मियों के साथ, सुबह – दोपहर प्रेक्षागृह में बैठे  रिहर्सल  और शाम को पेश होने वाले नाटक की तैयारियों को देखते हुए, स्टेज सज्जा और मिस्त्री, बढ़ई, साजिंदों का काम करीब से देखते हुए बिताना अविस्मरणीय अनुभुव हैं.  एक अदने से दर्शक के तौर पर पहली रंग यात्रा, यदि किसी भी तरह से इसे यह कह सकूं,  बहुत कुछ दे गयी है.

शेखर मल्लिक
आभार :
“कसाईबाड़ा” के गीतों  को इस आलेख हेतु उपलब्ध कराने के लिये  भाई अंगद कश्यप का.
इप्टा रायगढ़ के सभी साथियों का .

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