जुगलकिशोर से दिनेश चौधरी की बातचीत

इप्टा लखनऊ के वरिष्ठ साथी जुगलकिशोर भी जितेन्द्र रघुवंशी की तरह ही सबको भौंचक छोड़कर हमारे बीच से चले गये। जून 2015 में लखनऊ में इप्टा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के लिए छत्तीसगढ़ इप्टा से दिनेश चौधरी, राजेश श्रीवास्तव, मणिमय मुखर्जी, सुचिता मुखर्जी, अजय आठले, मधुकर गोरख और उषा आठले इकट्ठा हुए थे। वहीं जुगलकिशोर से हुई औपचारिक-अनौपचारिक बातचीत को दिनेश चैधरी ने साक्षात्कार की शक्ल प्रदान की। श्रद्धांजलिस्वरूप ‘दुनिया इन दिनों’ में प्रकाशित हुए संपादित अंश साभार प्रस्तुत.


एक नज़र में जुगलकिशोर:

Jugal Kishore
Jugal Kishore

अभिनेता, निर्देशक और रंग-चिंतक। भारतेन्दु नाट्य अकादमी, लखनऊ के पूर्व निदेशक। रंगकर्म के लिए उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी व इप्टा रायगढ़ द्वारा शरदचंद्र वैरागकर स्मृति रंगकर्मी सम्मान से सम्मानित। कुछ चर्चित नाटक: ब्रह्म का स्वांग, खोजा नसरुद्दीन, वासांसि जीर्णानि, बेयरफुट आॅफ एथेन्स, अंधा युग, आधे-अधूरे, तुगलक, गैलीलियो आदि। बतौर निर्देशक 30 से भी अधिक नाटकों का निर्देशन और देश भर में सैकड़ों प्रदर्शन। सिनेमा में अभिनय: काॅफी हाउस, पीपली लाइव, दबंग-2, मैं मेरी पत्नी और वो, बाबर आदि।

गैलीलियो की भूमिका करते हुए जब जुगलकिशोर दूरबीन के सहारे अंतरिक्ष-आकाश में कुछ खंगालते होते, मैं दूरबीन के पीछे उनकी निगाहों के बारे में सोचता था। उनकी आकर्षक शख्सियत में उनकी सम्मोहक आँखों का बड़ा हाथ था, जिसमें हर समय सोचती-सी निगाहें जाने किन चीज़ों के आर-पार गुजर कर उनकी पड़ताल कर रही होती थी। इसी सूक्ष्म निरीक्षण के साथ तर्कशीलता को मिलाकर वे अपने चरित्रों को गढ़ते थे। वही तर्कशीलता जिसके सहारे गैलीलियो ने बेचारे सूरज को धरती के चक्कर काटने से बचा लिया था और जिसके सहारे जुगलकिशोर ने हिंदी रंगमंच की गतिशीलता में बहुत-से आयाम जोड़े। अब जबकि यह दौर तर्क के विरुद्ध आस्था की उल्टी दिशा में जाने को तत्पर है और जब संयत विरोध को भी विद्रोह के खाँचों में बिठा दिये जाने की हड़बड़ाहट दिखाई पड़ती हो, जुगलकिशोर जैसे प्रतिबद्ध, तार्किक और विचारशील रंग-चिंतक का अकस्मात चला जाना, बेहद अखरने वाला है।

यों जुगलकिशोर की ख्याति बेहतरीन निर्देशक होने के बावजूद अभिनेता के रूप में ज़्यादा रही। वे कहते भी थे कि रंगमंच मूलतः अभिनेता का माध्यम है। चारित्रिक विन्यास के लिए पढ़ते खूब थे, पर सिर पर विद्वत्ता का बोझ लादे नहीं फिरते थे। आला दरजे के किस्सागो और ठहाकेबाज़ इन्सान थे। इंटरव्यू से ठीक पहले उन्हें अचानक लच्छू महाराज की याद आ गई। कहा, ‘‘भारतेन्दु नाट्य अकादमी में एक बार उन्होंने अपने चेले से कहा कि ‘‘बताओ, इश्क और मोहब्बत में क्या अंतर है?’’ शिष्य बेचारा बगले झाँकने लगा। लच्छू महाराज ने कहा, ‘‘बेवकूफ! इश्क में होंठ कभी भी आपस में नहीं टकराते हैं पर मोहब्बत में कई बार मिलते हैं।’’ ठहाके के साथ ही उन्होंने कहा कि, ‘चलो इंटरव्यू चालू करते हैं।’ हालाँकि ऊपर की पंक्तियों में ‘बेवकूफ’ संपादित होकर आया है वरना लच्छू महाराज ने मूलतः एक वजनदार गाली का इस्तेमाल किया था, जिसकी गरिमा का ध्यान रखते हुए जुगल जी ने अपनी आवाज़ में यथोचित घनत्व का सम्मिश्रण किया था। बहरहाल, उनसे हुई लंबी बातचीत के संपादित अंश इस प्रकार हैं:

अपनी भूमिका को लेकर तैयारी की आपकी प्रक्रिया क्या होती है?

चरित्र क्या है, बिहेवियर क्या है, ये तो पढ़ना ही होता है। लेकिन मैं चरित्र पर सोचता बहुत हूँ। खास बात ये होती है कि जब स्क्रिप्ट रीडिंग होती है तो एक-दो रीडिंग करता हूँ पर मेरी कोशिश ये होती है कि मेरा जो चरित्र है वह कोई और पढ़े। मैं सुनना चाहूँगा कि मेरा चरित्र क्या बोल रहा है। इससे दो फायदे होते हैं। एक तो यह कि सुनने से आपके दिमाग में शब्द चलने लगते हैं। दूसरा यह कि जो वह बोल रहा है, उसका मतलब क्या है और वो आपकी कल्पना में कितना विस्तार ले सकता है, ये स्पष्ट होने लगता है। जब कोई पढ़ता है तो मुझे ज़्यादा समझ में आता है। पढ़ता मैं भी हूँ तब भी समझ में आता है। ऐसा नहीं कि मैं बिल्कुल ही मूर्ख हूँ। थोड़ा मूर्ख हूँ ;ठहाकाद्ध। पर ये एक तरीका है जो मुझे ज़्यादा पसंद है। साथ ही निर्देशक अगर सहमत हो तो प्रयोग करने में मज़ा आता है। पर बहुत सारे निर्देशक रिजिड से होते हैं। मैं खुद जब बतौर निर्देशक काम करता हूँ तो अपने अभिनेता को पूरी छूट देता हूँ, पर यह छूट फ्रेम के भीतर होती है। अगर मेरा अभिनेता तुगलक कर रहा है और वो कहता है कि पहले दृश्य में तुगलक सिर के बल आएगा तो मैं कहता हूँ कि ठीक है सिर के बल आओ। पर आप जो भी कर रहे हैं वो कन्विसिंग होना चाहिए और सम्प्रेषित भी होना चाहिए। यह भी देखते रहना चाहिए कि आप जो सोच रहे हैं, चीज़ें उसके मयार में आ रही हैं या नहीं। ये एक बात मुझे ज़रूरी लगती है।

यह प्रक्रिया प्रशिक्षण की भाषा में क्या कहलाएगी?

प्रशिक्षण की भाषा में इसे ‘थ्री आइज़’ कहा जा सकता है – आई यानी मैं। पहला ‘आई’ है इनवेस्टिगेशन। यानी जो आपको फाइल या स्क्रिप्ट में मिल रहा है। आप अपने बारे में क्या सोच रहे हैं, दूसरे आपके बारे में क्या सोच रहे हैं या कह रहे हैं; आपकी उपस्थिति में या अनुपस्थिति में, आपके मुँह पर या पीठ पीछे आपके बारे में क्या कहा जा रहा है; ये सारी चीज़ें आप इनवेस्टिगेट करते हैं जो स्क्रिप्ट में लिखी हुई होती है – अपनी उम्र के बारे में, अपने व्यक्तित्व के बारे में, अपनी सामाजिक हैसियत के बारे में। दूसरा ‘आई है इनफेरेन्स। जब आप अपने चरित्र की पड़ताल करते हैं, एक कैरेक्टर की बायोग्राफी लिख रहे होते हैं तो इनवेस्टिगेशन में बहुत सारी चीज़ें छूट जाती हैं। तो यहाँ आपको बहुत सारी छूटी हुई चीज़ें या ‘मिसलिंक’ मिलेंगे जिन्हें आप अपनी इमेजिनेशन के सहारे जोड़ना चाहेंगे। जोड़ने के इस क्रम में इनफेरेन्स आपके अवचेतन को उद्वेलित करता है जहाँ बहुत सारे अनुभव, संवेदनाएँ, बर्ताव, घटनाएँ, लिखी-पढ़ी हुई चीज़ें खजाने की तरह जमा हैं। अब आपको एक स्पष्ट तस्वीर मिल जाती है जिसे आपको ‘थर्ड आई’ के रूप में मंच पर ‘इनवेंट’ करना होता है। तो आप इनवेंट क्या करेंगे? यही कि आपका चरित्र अलग-अलग परिस्थितियों में, अलग उम्र में, अलग हालात में किस तरह बर्ताव कर रहा है। यही तो आपकी भूमिका है।

इस प्रक्रिया से वंचित गैर-प्रशिक्षित या शौकिया कलाकार अपने चरित्र का विकास किस तरह करेगा?

जहाँ बहुत सारे शौकिया कलाकार काम कर रहे हों वहाँ काम का तरीका अलहदा होगा। मिसाल के तौर पर मैं अपने निर्देशक सूर्यमोहन का नाम लूँ जो ऐसे बहुत से कलाकारों को लेकर काम कर रहे थे। यहाँ कलाकारों के साथ सबसे पहले एक रिश्ता बनाना होता है, उनकी गुत्थियाँ सुलझानी होती है, उन्हें ऐसी जगह लेकर खड़ा करना होता है जहाँ वे स्वयं को सहज महसूस कर सकें। उनके साथ मैंने ‘वासांसि जीर्णानि’ किया था। मुझे बहुत से लोगों ने मना किया था कि उस चरित्र में कुछ रखा नहीं है, केवल ‘रघु-रघु’ करता रहता है। कोई भी इस भूमिका को लेने को तैयार नहीं था। सूर्यमोहन ने मुझसे कहा कि चार लाइनों वाले इस कैरेक्टर को कोई लेने को तैयार नहीं है। मैंने कहा, कैरेक्टर कोई चार लाइनों या एक लाइन से नहीं बनता है। वो तो एक शब्द से भी बन सकता है। मैंने यह नाटक उनके साथ किया। तो पहले दिन जब मैं गया तो मैंने दूसरों से ही स्क्रिप्ट रीडिंग करवाई। मुझे ऐसा लगा कि इस चरित्र में जान है, बल्कि यही नाटक का मुख्य चरित्र है। एक आदमी मरणासन्न अवस्था में है। बिस्तर पर है। वो बोल नहीं पाता पर वो सुन रहा है। उसकी आवाज़ चली गई है। दिमाग उसका जीवित है। सिर्फ रघु बोल रहा है वो भी दिमाग में। रघु यानी भगवान। आओ और मुझे ले जाओ। बस। पर यह जो दिमाग में बोल रहा है वह दर्शकों को कैसे सुनाई देगा? तो अब जो उसका शरीर है, वही दिमाग बन जाता है। नाटक का जब प्रदर्शन हुआ तो अद्भुत रहा। देवेन्द्रराज अंकुर, ढींगरा वगैरह मुझे रघु-रघु कहकर पुकारते रहे। एक लड़का आकर रोने लगा। कहा, ‘‘मुझे मेरे मरते हुए पिता की याद आ गई।’’ तो सवाल ये है कि मेरी कल्पना में वह चरित्र कैसे आया? मैं हाईस्कूल में था। 70 के आसपास। मेरे पिता का देहांत हुआ। उनको लीवर कैंसर था। मरने के तीन दिन पहले उनकी आवाज़ बंद हो गई थी। वो देखते थे और रोते थे। मृत्यु से पूर्व उल्टी साँसें चलने लगी थीं। मैंने बहुत करीब से ये चीज़ें देखी थीं। जीवन में अगर आप बहुत आॅब्जर्वेन्ट नहीं हैं तो अभिनय नहीं कर सकते। मेरा अनुभव ‘वासांसि’ का रघु करने में बहुत काम आया। इन्हीं उल्टी साँसों के साथ नाटक शुरु हुआ था और आखिर में जब इस तरह साँस चलती होती है, पीछे गीता के श्लोक चलते हैं, एक लड़का गा रहा है, दर्शकों को रघु-रघु सुनाई पड़ रहा है और गाते-गाते वह द्वार से बाहर निकल जाता है। निकल जाना यानी प्राणों का निकल जाना – मुक्त हो जाना। तो जो शौकिया कलाकार हैं, उनके लिए आॅब्ज़र्वेशन एक बड़ा माध्यम है। इसके अलावा स्पीच एक ऐसी चीज़ है, जो आपकी अंदरूनी भावनाओं को खोलने में बहुत काम आती है। काम करते हुए मैं इस पर बहुत ध्यान देता हूँ।

इस संबंध में हबीब तनवीर के काम को आप किस तरह देखेंगे, जिनके कलाकार प्रशिक्षित न हों और केवल छत्तीसगढ़ी जानते हों?

देखिये, हबीब साहब के एक्टर बेहतरीन होते हुए भी एक खास तरह के एक्टर हैं। म्यूजि़कल हैं, काॅमिकल हैं। एक खास परिवेश से आये हैं। उनके नाटकों के चयन में भी एक सावधानी है। नया थियेटर के कलाकारों के साथ उन्होंने ‘आधे-अधूरे’ या ‘डाल्स हाउस’ या ‘पिलर आॅफ दी सोसायटी’ जैसे नाटक नहीं खेले। वे शेक्सपियर का भी अगर नाटक कर रहे हैं तो ‘मिड समरनाइट ड्रीम’ कर रहे हैं। या ‘बुर्जुआ जेंटलमैन’ भी किया तो ‘लाला शोहरत राय’ के नाम से, जो म्यूजि़कल है, काॅमिकल है। ‘हिरमा की कहानी’ भी म्यूजि़कल है। या ‘आगरा बाजार’ को ही ले लें। तो उन्होंने वैसे ही नाटक खेले जो उनके कलाकारों की जि़ंदगी से जुड़े हों और ऐसे नाटकों में वे बेहद सतर्क होकर अपने कलाकारों का इस्तेमाल कर लेते थे। कभी-कभी वे खुद भी कोई कैरेक्टर कर लेते थे। ‘चरनदास चोर’ में वे जब कान्स्टेबल का रोल करते थे तो वो बिल्कुल अलग होता था। जाहिर-सी बात है कि एक प्रशिक्षित कलाकार और एक शौकिया कलाकार के काम करने के ढंग में, उनकी क्षमताओं में अंतर तो होगा ही। इससे इतर एक महत्वपूर्ण बात यह है कि आज का जो थियेटर है, उसमें निर्देशक हावी होता जा रहा है। नाटक उसका माध्यम नहीं है। नाटक अभिनेता का माध्यम है और अभिनेता को प्यार किया जाना चाहिए। एक्टर को तैयार किया जाता है। तो जब उसे तैयार करना हो तो किस तरह करेंगे? सुबह-सुबह गाली देकर? मेरा मानना है कि अभिनेता के साथ काम करते हुए उसकी रचनात्मक-सृजनात्मक समस्याओं के साथ उसकी व्यक्तिगत समस्याएँ भी सुनीं जानी चाहिए।

और जब काम बच्चों के साथ करना हो?

देखिये, थियेटर में इस बात की बहुत ज़रूरत है कि चिल्ड्रन्स क्लब बनाये जायें। हम कहते हैं कि हम सामाजिक बदलाव के लिए नाटक खेलते हैं तो क्या एक नाटक खेलने से सामाजिक बदलाव आ जायेगा? जाहिर-सी बात है नहीं। बच्चों को जोड़ने के लिए उनसे बातें करें। एकाध पखवाड़े में कोई फिल्म दिखायें। उनके साथ खेलें। बच्चों वाली किताबें पढ़ें। कहानियाँ सुनायें। उनकी गुत्थियाँ सुलझायें। उन्हें खोलें। समान विचारों वाले माता-पिता को अपने साथ जोड़ें। इसके बाद उनके साथ नाटक करने के बारे में विचार करें। अच्छे समाज की शुरुआत यहीं से तो होगी न!

नाटक के क्षेत्र में आपकी अपनी शुरुआत कैसे हुई?

मैं फिल्म एक्टर बनना चाहता था। मेरे चाचा कथा-वाचक थे। ज्योतिषि थे। क्राॅनिक बैचलर थे। रामायण सुनाते थे। भागवत सुनाते थे। हारमोनियम पर उनकी सत्यनारायण की कथा सुनना अपने-आप में एक अनुभव होता था। पहली बार वही मुझे एक धार्मिक नाटक में अभिनय करने ले गये, जिसमें मुझे इंद्र की भूमिका करनी थी। बाद में मैंने अपनी तस्वीर देखी तो मेरा गेटअप रावण जैसा लग रहा था। पहला अनुभव तो यही था। आगे चलकर पूना फिल्म इंस्टीट्यूट के लिए आवेदन तो दिया पर पिता की मृत्यु के कारण घर बिखर चुका था। रहने के लिए घर नहीं था। फुटपाथ पर आ गये थे। हाई स्कूल कर चुका था तो कुछ ट्यूशन वगैरह की, एक मोटर गैरेज में सौ रूपये महीने पर काम किया। यहाँ झाडू लगाने और पानी पिलाने के साथ मैनेजरी भी करनी होती थी। फिर एक साथी के साथ होटल खोल लिया और चलती होटल छोड़कर जम्मू चला गया, अखनूर बाॅर्डर पर। यहाँ दिन भर डायनामाइट के लिए ड्रिलिंग की जाती थी और शाम को विस्फोट किया जाता था। रोज सात रूपये मिलते थे। तीन महीने वहाँ रहकर बिड्डा आ गया। बिड्डा ऐसी जगह है, जिसके बारे में कहा जाता है कि वह पूरे हिंदुस्तान को हवा सप्लाई करता है। वहाँ बहुत खतरनाक ढंग से तेज़ हवाएँ चला करती थीं। यहाँ एक स्टोर में डीज़ल-जूट वगैरह बाँटने का काम करता था। इस दौरान मैंने पढ़ा बहुत। यही मेरा टर्निंग पाॅइंट था। जो भी किताब हाथ लग जाती, चट कर जाता। धार्मिक किताबें भी। सिंचाई विभाग की एक लाइब्रेरी से बहुत-सी किताबें मिल जाया करती थीं। फिर लखनऊ आकर काम के लिए यहाँ-वहाँ भटकता रहा। 1978 में भारतेन्दु नाट्य अकादमी का एक विज्ञापन पढ़ा। 25 रूपये की फीस और 100 रूपये की स्काॅलरशिप पर यहाँ दाखिला मिल गया। फिर इसके बाद मैंने पीछे पलट कर नहीं देखा। एक्टिंग, डायरेक्शन वगैरह का काम शुरु हुआ। आपको याद होगा कि उन दिनों जब टीवी ब्लैक एण्ड व्हाइट हुआ करता था, तब एक सीरियल ‘बीवी नातियों वाली’ आता था। उसमें भी मैंने अभिनय किया। रेडियो-अखबार में भी लिखना शुरु कर चुका था। 1979 में मैंने ‘ब्रह्म का स्वांग’ किया। तब इप्टा नहीं थी लखनऊ में। नाटक प्रगतिशील लेखक संघ की ओर से खेला गया था।

और फिल्मों में काम करने का शौक किस तरह पूरा हुआ?

फिल्मों में तो मैं आना ही चाहता था। सुधीर मिश्रा यहाँ एक फिल्म बना रहे थे, ‘ये वो मंजिल तो नहीं’। उसमें हबीब साहब, पंकज कपूर वगैरह थे। इसमें मुझे एक काम मिला, भीड़ के हिस्से के रूप में। लेकिन शूट करने के समय जब एक महत्वाकांक्षी अभिनेता के जरिये मुझे बुलावा भेजा गया तो उसने कह दिया कि मैं आया ही नहीं और भूमिका उसने झटक ली। फिर जबलपुर के ऋषि जेना की एक फिल्म की। उन्होंने प्रेमचंद की कफन भी बनाई, जिसमें साधू मेहर, राजपाल यादव वगैरह के साथ मैंने काम किया। इसमें मैंने पंडित की भूमिका की थी। फिर राजपाल यादव के साथ में ‘मैं मेरी पत्नी और वो’ में काम किया। इसमें लखनऊ यूनिवर्सिटी के डीन का कैरेक्टर मैंने किया। ये फिल्म ठीक-ठाक हो गई थी। इसके बाद लखनऊ में आॅडिशन्स का सिलसिला शुरु हो चुका था। यहाँ-वहाँ से लोग आते रहते थे। ‘इश्किया’ का आॅडिशन हुआ। कहा कि आपको विलेन का कैरेक्टर करना है। पर वो गायब हो गये। फिर विशाल भारद्वाज के लिए इलाहाबाद से हरीश त्रेहन का फोन आया। आॅडिशन वगैरह हुआ। कहा, ‘हैदर’ में करीना के बाप का रोल करना है। जब फिल्म रिलीज़ हुई तो मैं नहीं था कोई और था। इसके बाद मैंने आॅडिशन देना बंद कर दिया, जबकि इसी दौरान मेरी ‘बाबर’ नाम की एक ठीक-ठाक फिल्म आई थी। आशुतोष राणा के साथ ‘काॅफी हाउस’ भी बहुत चर्चित हुई। ‘पीपली लाइव’ वाले आए तो पहले तो मैंने साफ इंकार कर दिया। लेकिन अकादमी में क्लास लेने के बाद जब मैं अपने कमरे में आया, एक लड़का कैमरा वगैरह लेकर पहुँच गया। कहा, मुख्यमंत्री के रोल के लिए आपका आॅडिशन चाहिए। मैंने टालना चाहा पर वो अड़ा रहा। बेमन से बगल के एक खाली कमरे में आॅडिशन दे दिया, पर वह आमिर खान को बहुत पसंद आया। उन्होंने तीन बार इसे देखा और फिर फोन करके कहा कि आप मेरी फिल्म में काम करें। इसके बाद ‘खरबूजे’, ‘दबंग-2’, ‘निल बटा सन्नाटा’, ‘इश्क मलंग’, ‘वर्जिन दिल’ वगैरह की। कुछ विज्ञापनों में भी काम किया। ‘राइट टू बी हर्ड’ में बड़ा मज़ा आया। लेकिन मेरी पहचान फिल्म की वजह से हो तो मुझे अफसोस होता है। मैं चाहता हूँ कि थियेटर में अपने काम की वजह से ही मैं पहचाना जाऊँ।

थियेटर और सिनेमा – इन दो माध्यमों के बीच आपने अपने आप को किस तरह साध कर रखा?

पहले यह काम मुझे कुछ मुश्किल लगता था पर अब शायद अपने अनुभवों की वजह से कोई दिक्कत महसूस नहीं होती। एक बात तो यह है कि अगर नाटक में एक सेट बना है तो वह उसी पर खेला जाएगा। फिल्म में यह ज़रूरी नहीं है जो स्क्रिप्ट में लिखा है वही होगा। वे आपको लेकर कहीं भी शूट कर सकते हैं। चलते-चलते भी कर सकते हैं। लाँग शाॅट में भी कर सकते हैं। तो आपको इन स्थितियों के लिए तैयार होना होता है। एक अभिनेता के लिए मुश्किल इसलिए भी नहीं है कि यह अभिनेता का माध्यम है ही नहीं। निर्देशक का भी नहीं है। ये एडीटर का माध्यम है, जिसके हाथ में कैंची होती है।

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