अरूण पाण्डे का रंग-व्यक्तित्व अथ से इति तक समूह-सम्बद्ध रहा है। उन्होंने न केवल अभिनय और निर्देशन किया है, वरन् देश भर की अनेक शौकिया रंगसंस्थाओं के सैकड़ों रंगकर्मियों को अभिनय, क्राफ्ट, रंग-संगीत, सामूहिकता एवं अनुशासित रंगमंच का प्रशिक्षण भी दिया है। अरूण पाण्डे को अनेक सम्मान मिल चुके हैं। उल्लेखनीय है कि उन्हें इप्टा रायगढ़ का तृतीय शरदचन्द्र वैरागकर स्मृति रंगकर्मी सम्मान जनवरी 2012 में प्रदान किया गया है। अरूण पाण्डे वर्तमान में विवेचना रंगमंडल जबलपुर के निर्देशक हैं। इप्टा रायगढ़ की शिशु अवस्था में उनका अविस्मरणीय योगदान रहा है। यह लेख उनके द्वारा इप्टा रायगढ़ में संचालित सबसे पहली कार्यशाला में प्रशिक्षित अर्पिता श्रीवास्तव ने ‘रंगकर्म’ के लिए विशेष रूप से तैयार किया है, जो उनके साथ की गई विशेष बातचीत पर आधारित है।

अरूण पाण्डे
अरूण पाण्डे

एक सपना जीवन का आधार बनता है, उस सपने की जमीन पर शिशु एक पग धरता है और विश्वास से भर उठता है और उसी क्षण दूसरा सपना उसकी सपनीली आँखों में तैरने लगता है। बस! इसी तरह सपने की धरा पर पाँव बढ़ाता शिशु कब अपने लिए यथार्थ की ठोस जमीन बना लेता है, उसे पता ही नहीं चलता। हर कदम के पीछे सपने की बहुत लंबी रेल होती है, जिसका हर डिब्बा हमारे आचार-विचार और विमर्षो की कड़ी से मजबूती से जुड़ा होता है। इस रेलगाड़ी को लगातार आगे बढ़ाते जाने और तेज़ रफ्तार से चलाने की कोशिश के लिए दूसरों की चेतना के स्तर पर दिशा-निर्देश लेकर गतिमान रखने की कोशिश  करता है। इस तरह की अनंत रेलगाडि़याँ हमारे आसपास उपस्थित हैं। हम उन्हें चलते, दौड़ते, भागते और कुछ को खड़े भी देखते हैं। सपने की रेलगाड़ी को यथार्थ की ज़मीन पर आगे बढ़ाते एक रेलगाड़ी के चालक हैं – अरुण पाण्डे। अरुण पाण्डे ने जीवन के कई क्षेत्रों में अपना आधिकारिक दखल रखा और सराहे गए पर उन्होंने निश्चित ही एक सपना देखा और उसे आज तक जी रहे हैं और वह है थियेटर। घर में रामलीला के महीने भर के मंचन में हिस्सेदारी लेते हुए इस दुनिया में पहला कदम रखा और बाकी महीने परिवारजनों की उपस्थिति में लगातार खेलते रहे। खेल-खेल में रोपा गया पौधा आज अपने वृहद आकार पर निश्चित ही कभी आश्चर्यचकित होता होगा और यदि नहींे होता होगा तो यह निश्चित है कि वह अरुण पाण्डे के इसके और वृहद रुप के सपने को साकार देखना चाहता होगा। छात्र जीवन से मंच के जिस जादुई प्रभाव को अनुभूत किया, उसे अपने जीवन और सामाजिक जीवन में वे पूरी शिद्दत के साथ जिए जा रहे हैं। उनके संपर्क में रहने वाले लोग भी इसके जादुई प्रभाव में बंधे हुए हैं। इस जादुई प्रभाव को यथार्थ के साथ सही काॅम्बीनेशन में मिक्स करने में ही किसी कला की सार्थकता है। जीवन में सफलता-असफलता के दो विपरीत ध्रुवों से परे एक राह पकड़कर बस आगे जाने में वे यकीन रखते हैं । कुछ इसी अंदाज में अरुण पाण्डे ने इस राह को चुना। बिना लाग-लपेट के स्पष्ट वैचारिक सरोकारों के साथ बिना संसधानों के काम शुरु किया और धीरे-धीरे कारवाँ जुड़ता गया। आज उनके सान्निध्य में आने वाले युवाओं की बहुत बड़ी संख्या थियेटर, अभिनय और इससे जुड़े कामों से ही आगे बढ़ती जा रही है । हालाँकि आज इस वैचारिकता का आग्रह हास्यास्पद, कम समझी का नमूना माना जाता है।

परंपरा, सामाजिकता और राजनैतिक सरोकारों से निरंतर अधुनातन होता हमारा थियेटर समृद्ध है। इसके आवरण को साफ और स्पष्ट रखने वाले रंगकर्मी ही ऐसे कार्यकर्ता हैं, जिनमें समाज को मानवीय और नैतिक सरोकारों से जोड़े रखने का जज़्बा विद्यमान है, जिसकी बदौलत आज के उपभोक्तावादी समाज में भी हम नकलची नहीं कहलाते हैं। 1955 में बनारस में जन्मे अरुण पाण्डे रचनात्मकता की उर्जा से भरे आज भी क्रियाशील है। बचपन और युवावस्था में अपने आप से अनजान अरुण पाण्डे थे और थी बनारस की सँकरी गलियाँ, जिसके हर मोड़ पर कई तरह के कामगार बसते थे। रंगों, सूतों, जरियों और मिट्टी को बरतते, आकार देते कलाकार थे। उन कलाकारों के व्यवहार और काम को सूक्ष्मता से उन्होंने परखा था। धीरे-धीरे अपनी रुचि परिष्कृत करने के साथ-साथ क्राफ्ट में स्वयं को पारंगत करने की दिशा में कदम बढ़ाये। इन सब के मौन संगीत से जुदा चैराहों पर शहनाई की तान, कत्थक की थाप और तबले की चक्करदार तिहाईयों में अनगढ़ अरुण पाण्डे अपनी लय खोजने में मगन रहे। सावन में कजरी, चैता और बिरहा को चैराहे-चैराहे पर सुना। बडे़ होने तक उनकी आँखें, कान और मन निश्चित ही किसी मिट्टी के कच्चे बर्तन के पकने की प्रक्रिया में रहे। इसी बीच अपने अध्ययन के दौरान के दौरान हरिश्चंद्र इंटर काॅलेज में उन्होंने नाटकों में हिस्सा लिया। चूँकि भारतेंदु के द्वारा यह काॅलेज स्थापित था अतः हर वर्श नाट्य समारोह में इनके लिखे नाटकों का मंचन होता था। आठवीं से बारहवीं तक पढ़ते हुए भारत दुर्दशा, छोटी गैबी, वैदिक हिंसा हिंसा न भवति, अंधेर नगरी आदि नाटक किए। पढ़ाई के दौरान ही ब़.व.कारंत की चालीस दिवसीय नाट्य कार्यशाला ने उन्हें ऐसा विरल और सघन अनुभव सौंपा, जिसे थाती की तरह उन्होंने संजोया है और जिसकी सफलता में कभी कमी नहीं आने दी। रंगकर्मियों के प्रति आत्मीयता का जो संस्कार अरुण पाण्डे ने कारंत जी से पाया, उसे अपने में समाहित करने की कोशिश में वे सदैव लगे रहे। आज जब निरंतर रिश्ते छीज रहे हैं, लोग गलाकाट प्रतिस्पर्धा में रत हैं, वे अपने बनाए रिश्तों को सहेजने की कोमल कोशिश को भी उतना ही महत्व देते हैं, जितना थियेटर को। थियेटर के प्रति उनके समर्पण और ईमानदारी के गुण की वजह से ही मतभेद होने पर भी रंगकर्मी लगातार सहयोग कर रहे हैं। बनारस के रंग में रमे और यहाँ से कहीं और जाने के बारे में तो युवा अरुण ने सोचा भी नहीं होगा, पर वहाँ से नहीं निकलते तो परसाई, अलखनंदन, ज्ञानरंजन और राजेन्द्र दानी से कैसे मिलते! पिता के तबादले ने उनके सीखने-समझने की प्रक्रिया में अवरोध जरुर डाला, उन्हें यूँ लगा कि जीवन को मिलने वाले अनगिनत कला-स्रोतों को किसी ने उनसे छीन लिया हो, पर स्वयं से समझौता कर वे जबलपुर आए, सिर्फ इस दिलासे में, कि समय के प्रवाह में बड़े-बड़े थपेड़े मिट जाते हैं। इस बारे में अरुण जी का कहना है – ‘‘ठेठ बनारसी रंग-ढंग में ढले होने की वजह से जबलपुर आने की मेरी ज़रा भी इच्छा नहीं थी, मन मारकर पिता के आने के दो बरस बाद मैं जबलपुर आया।’’ भले ही आज लंबे समय के बाद पीछे मुड़कर देखने पर उन्हें महसूस होता होगा कि यदि नहीं आते तो आज का अरुण पाण्डे कुछ और होता! खैर! इस तरह की कल्पनाएँ और उनके साकार होने न होने की अनेक तस्वीरों को हम गाहे-बगाहे रंगते रहते हैं।

जबलपुर में उस समय नाटकों के मंचन में निरंतरता थी, कई रंग संस्थाएँ सक्रिय थीं। उनके काम से जुड़ी तमाम खबरों का केंद्र था, शहर का मालवीय चैक। शहीद स्मारक सभागार में नाटक मंचित होते थे और उनकी समीक्षा रात को ही मालवीय चैक में हो जाया करती थी। यहाँ लेखक, निर्देशक, अभिनेता, अभिनेत्रियाँ, पत्रकार और संगठनकर्ता – सभी इकट्ठे होते थे, विचार-विमर्श और बहसों में हिस्सा लेते थे। किसी भी शहर में इस तरह के अड्डों का अपना सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व होता है। किसी नये आंगतुक के लिए इस तरह के अड्डे शहर को समझने में सहायक होते हैं। हालाँकि आज के समय में ऐसे ठौर-ठिकाने धीरे-धीरे विलुप्त होते जा रहे हैं। संभवतः विकास की परिभाशा में शहर का विकास जितनी तेजी से हो रहा है, उतनी ही तेजी से ऐसी जगहों के स्थान सिकुड़ते जा रहे हैं या खत्म ही हो रहे हैं। आने वाले समय में निश्चित ही य स्थान लोगों के संस्मरणों में जीवित रह जाएंगे और हमारे बाद की पीढियाँ इनके बारे में पढ़-पढ़ कर अचंभित होंगी। बहरहाल, अरुण पाण्डे के जबलपुर आने के बाद विनेाद श्रीवास्तव द्वारा निर्देशित नाटक ’पांच लोफर‘ देखने के दौरान उनका यहाँ के रंगकर्मियों से मेलजोल बढ़ा। विश्वभावन देवलिया द्वारा हरिशंकर परसाई की कहानी ’लंगड़ी टांग‘ के नाम से तैयार हो रही थी। उसमें उन्हें अवसर मिला। कुछ नाटक करने के बाद पढ़ाई में ध्यान लगाने का सोचा, पर सांइस काॅलेज की गतिविधियों मंे हिस्सा लेते रहे। कलाकार की समझ में आ जाती है, तब वह अपनी प्रश्नाकुलता और जिज्ञासा को हल कर पाता है और तब उसके काम में गहराई महसूस होती है। बरसों का पूर्वाभ्यास और सान्निध्य से उपजा धैर्य और प्रतिबद्धता का नाद गूंजता महसूस होता है अरुण पाण्डे मंे। इसके अलावा उनमें एक विशिष्ट गुण है आॅब्ज़र्वेशन का। बचपन से किशोरावस्था तक देखा-सुना बनारस, आज भी उनकी रगों में दौड़ता है। उनके नाटकों की खासियत है कि उनके किसी ना किसी गीत को हर दर्शक गुनगुनाते हुए ही वापस होगा। किसी न किसी डायलाॅग के ‘पंच’ पर उन्हें वाहवाही देते हुए ही घर लौटेगा। क्या किसी निर्देशक के लिए इससे बड़ा कोई और उपहार हो सकता है? अरुण पाण्डे  ‘‘थियेटर ही जीवन है’’ – इस मंत्र को सिद्ध करने में ही स्वयं की सार्थकता समझते हैं। इसीलिए उनके निर्देशित नाटक, जहाँ लोक की भव्यता का सफर तय कराते हैं, वहीं बेचैन करते सवाल हमें खुद से सवाल करने को मजबूर करते हैं। जन-सरोकारों से जूझने पर ही काम में उत्कृष्टता के दर्शन संभव है। उनका मानना है कि रंगशाला हमारे लिए मनोरंजन का साधन तो है ही किंतु यह एक पाठशाला भी है। नाटकों और नाटकीय क्रियाकलापों के बीच जीवन के कई अनसुलझे प्रश्नों का समाधान हमें रंगशाला से ही मिलता है। जब हम किसी निर्देशक का अच्छा काम देखते हैं तो एक जिज्ञासा होती है कि आखिर कैान सा परिवेश, शिक्षा, सामाजिक माहौल और लोग उनसे जुड़े हैं, जिसकी बदौलत यह शख्सियत बनी? अरुण पाण्डे को बनाने में ब.व.कारंत, अलखनंदन, मुक्तिबोध, हरिशंकर परसाई, ज्ञानरंजन और राजेन्द्र दानी का बहुत बड़ा योगदान है। इनके अलावा बंसी कौल ने भी उन्हें बहुत कुछ सिखाया।

अब चर्चा उनके उस पड़ाव की, जिस पर बात करने से कुछ खास गुणों पर ध्यान बरबस ही जाता है। उनके थियेटर के कुल जमा सफर का यह एक महत्वपूर्ण पड़ाव है और हिन्दी रंग-जगत के लिए मील का पत्थर। बुंदेलखंड

थियेटर करने के साथ-साथ जीविकोपार्जन के लिए लगभग 35-36 बरस पत्रकारिता की। जब जबलपुर में ‘नवीन दुनिया’ के पत्रकार थे, तब उसके एक काॅलम के लिए हरिशंकर परसाई भी लिखते थे, जिसके लिए हर पाँचवें दिन वे परसाई जी के घर पहुँच जाते थे। उनकी व्यंग्य-शैली के ये मुरीद हैं। उनकी रचनाओं को केवल पढ़ा ही नहीं, बल्कि अपने नाटकों में गुना भी। समाज और व्यवस्था के प्रति परसाई जी की सूक्ष्म-पारखी निगाहों से उन्होंने बहुत-कुछ सीखा और सहेजा। ‘निठल्ले की डायरी’ उनका बहुचर्चित, बहुमंचित और बहुप्रशंसित नाटक है। अपने आपकी और अपने काम की लगातार विवेचना-विश्लेषण करने की समृद्ध परंपरा को वे आगे बढ़ा रहे हैं। उनके इस गुण के लिए यहाँ से थोड़ा पीछे लौटते हुए अलखनंदन जी की निर्देशकीय निगाहों तले उनका जो कायाकल्प हुआ, वह बरकरार है। अलखनंदन जी ने उन्हें साहित्य, समाज और व्यक्ति के स्याह और सफेद पक्षों से परिचित कराया, वहीें राष्ट्रीय फलक में ‘विवेचना’ की पहचान बनाने में भी उनका सहयोग अमूल्य है।

यह सच है कि कला पहले स्वयं से संवाद करना सिखाती है। आत्मसंवाद की उत्कृष्टता पर ही दूसरों से संवाद का उत्कर्श दिखता है। अपने आप को समझना, अंतर्विरोधों और संघर्षो को परत-दर-परत खोलकर स्पष्ट समझ बनाना आसान काम नहीं है। जब इस पीढ़ी की समझ  कलाकार की समझ में आ जाती है, तब वह अपनी प्रश्नाकुलता और जिज्ञासा को हल कर पाता है और तब उसके काम में गहराई महसूस होती है। बरसों का पूर्वाभ्यास और सान्निध्य से उपजा धैर्य और प्रतिबद्धता का नाद गूंजता महसूस होता है अरुण पाण्डे मंे। इसके अलावा उनमें एक विशिष्ट गुण है आॅब्ज़र्वेशन का। बचपन से किशोरावस्था तक देखा-सुना बनारस, आज भी उनकी रगों में दौड़ता है। उनके नाटकों की खासियत है कि उनके किसी ना किसी गीत को हर दर्शक गुनगुनाते हुए ही वापस होगा। किसी न किसी डायलाॅग के ‘पंच’ पर उन्हें वाहवाही देते हुए ही घर लौटेगा। क्या किसी निर्देशक के लिए इससे बड़ा कोई और उपहार हो सकता है? अरुण पाण्डे  ‘‘थियेटर ही जीवन है’’ – इस मंत्र को सिद्ध करने में ही स्वयं की सार्थकता समझते हैं। इसीलिए उनके निर्देशित नाटक, जहाँ लोक की भव्यता का सफर तय कराते हैं, वहीं बेचैन करते सवाल हमें खुद से सवाल करने को मजबूर करते हैं। जन-सरोकारों से जूझने पर ही काम में उत्कृष्टता के दर्शन संभव है। उनका मानना है कि रंगशाला हमारे लिए मनोरंजन का साधन तो है ही किंतु यह एक पाठशाला भी है। नाटकों और नाटकीय क्रियाकलापों के बीच जीवन के कई अनसुलझे प्रश्नों का समाधान हमें रंगशाला से ही मिलता है। जब हम किसी निर्देशक का अच्छा काम देखते हैं तो एक जिज्ञासा होती है कि आखिर कैान सा परिवेश, शिक्षा, सामाजिक माहौल और लोग उनसे जुड़े हैं, जिसकी बदौलत यह शख्सियत बनी? अरुण पाण्डे को बनाने में ब.व.कारंत, अलखनंदन, मुक्तिबोध, हरिशंकर परसाई, ज्ञानरंजन और राजेन्द्र दानी का बहुत बड़ा योगदान है। इनके अलावा बंसी कौल ने भी उन्हें बहुत कुछ सिखाया।

अब चर्चा उनके उस पड़ाव की, जिस पर बात करने से कुछ खास गुणों पर ध्यान बरबस ही जाता है। उनके थियेटर के कुल जमा सफर का यह एक महत्वपूर्ण पड़ाव है और हिन्दी रंग-जगत के लिए मील का पत्थर। बुंदेलखंड अंचल के ‘लोक कवि ईसुरी’ को आज भी ग्रामीण अंचल में गाया-सुना जाता है, जिनकी 800 फागें और उनसे जुड़ी बातें किसी किताब में संकलित नहीं हैं। हालाँकि बाद में मैत्रेयी पुष्पा का ‘कहे ईसुरी फाग’ एक उपन्यास आया। पर उससे पहले ईसुरी पर अरुण पाण्डे का काम ‘लोक’ को लोगों के समक्ष लाने की उनकी रुचि को बताता है। अरुण पाण्डे ने बुंदेलखंड के ‘ईसुरी’ से जो यह काम शुरु किया, वह अब तक जारी है। ‘ईसुरी’ जैसे जनकवि के बारे में जानकारी न होना हर संवेदनशील व्यक्ति के लिए पीड़ादायक है। लगभग 150 वर्षो से स्मरण के भरोसे और वाचिक परंपरा द्वारा समाज में इनकी रचनायें प्रचलित हैं, जो ईसुरी की रचनाशक्ति का परिचय देती हैं। ईसुरी के लोकगायन या लोकनाट्य के क्षेत्र के ऋण से उबरने का एक प्रयास अरुण पांडे का भी है। उनकी समस्त रचनाओं से अरुण जी ने 50 चैकडि़या फागों को छाँटकर उनके जीवन को पिरोते हुए यह नाटक तैयार किया। यह प्रोजेक्ट ‘संगीत नाटक अकादमी’ द्वारा स्वीेकृत हुआ। ईसुरी से संबंधित जानकारी एकत्र करने में इन्हें लगभग दो वर्श लगे। नौ माह कसकर रिहर्सल की। इस नाटक की तमाम काॅस्ट्यूम, प्राॅपर्टी उन्होंने सभी साथियों के साथ मिलकर तैयार की। इसके प्रदर्शन और तैयारियों ने जहाँ अरुण पाण्डे को ऊर्जा और उत्साह से भरा, वहीं कला-जगत ने भी इस प्रस्तुति का दिल खोलकर स्वागत किया। इसके लिए टाइम्स आॅफ इंडिया ने लिखा ‘‘हबीब तनवीर के आगरा बाजार के बाद ये है हिंदुस्तान का थियेटर। इसमें सब कुछ भारतीय है, हिंदुस्तानी है, यह किसी से प्रभावित नहीं है।’’ उनकी खास बात यह है कि उन्हें अपने काम की रंजकता का ज्ञान है। अपने काम में मनोरंजन, कला और कथ्य के सम्मिश्रण को लेकर वे सचेत हैं। रंगमंच के निर्देशक के लिए सिर्फ इतना ही आवश्यक नहीं होता। बल्कि आज के समय में जब रंगकर्म करना कठिन से कठिनतर होता जा रहा है, वे इसके प्रति लंबे समय से सजग हैं। इसकी बानगी नाट्य समीक्षक सत्यदेव त्रिपाठी के इस कथन में अभिव्यक्त होती है – ‘‘जितना नादिरा बब्बर, रमेश तलवार एक दिन की रिहर्सल का किराया देते हैं, उतने में अरुण पाण्डे का प्रोडक्शन तैयार हो जाता है।’’ रिहर्सल और प्रदर्शन की जगह को लेकर क्या छेाटे शहर, क्या बड़े शहर, सभी जगह रंगकर्मियों को पापड़ बेलने पड़ते हैं। इन सबका उल्लेख करने की वजह सिर्फ यह है कि अरुण पाण्डे में थियेटर के लिए अदम्य धैर्य है जो उनके काम में बोलता-गाता दिखता है। जहाँ तक अब तक के प्रोडक्शन की बात की जाए, तो यह महत्वपूर्ण है कि वे सदैव स्वयं ही काॅस्ट्यूम-प्राॅपर्टी बनाते हैं। कहीं बाहर कार्यशाला लेने भी जाते हैं, तो वहां के रंगकर्मियों को हमेशा सीखने-सिखाने और बनाने के लिए प्रेरित करते हैं।

रंग-जगत की प्राथमिक जरुरत है नाट्योत्सव, जिसके आधार पर रंगकर्मी अपने नवोन्मेशित प्रयोगों द्वारा बातों को संप्रेषित करते हैं। किसी प्रोडक्शन के पहले चरण में उनकी प्राथमिकता को परिपूर्ण करती स्क्रिप्ट की आवश्यकता आरंभिक, पर महत्वपूर्ण चरण है। हिन्दी रंग-जगत में नये नाटकों की कमी का रोना रंगकर्मी रोते हंै पर हमारे साहित्य-जगत की रचनाओं में अपनी रंग-कल्पना भरने की कोशिश से ज़्यादातर लोग कतराते हैं, पर अभी हाल के कुछ वर्ष में इस तरह के अभ्यास और प्रयासों में तेज़ी आयी है। इस तरह के प्रयासों में ‘विवेचना रंगमंडल’ का योगदान बहुमूल्य है। इसी सफ़र में उन्होंने मुक्तिबोध, परसाई, काशीनाथ सिंह, विजयदान देथा, अमृतराय, ज्ञानरंजन की रचनाओं के रुपांतरण कर लोगों को इस दिशा में काम करने की प्रेरणा दी है। कला-यात्रा की कोई मंजिल नहीं होती, वरन् अनेक पड़ाव होते हैं, जिनपर पहुँच कर कलाकार आगे की यात्रा के रास्ते पहचानता है। एक अभिनेता के रूप में स्थापित होने के बाद अरुण पाण्डे ने धीरे-धीरे बतौर निर्देशक कदम बढ़ाए। एक तरफ सुपरिचित स्क्रिप्ट्स – कोर्टमार्शल, हानूष, डरा हुआ आदमी, जुलूस, कर्पूर मंजरी, रसगंधर्व, थैंक्यू मिस्टर ग्लाड, पैसा बोलता है, लोककथा, दूर देश की कथा जैसे कई नाटक उन्होंने निर्देशित किए, वहीं भगवत रावत, मुक्तिबोध, उदय प्रकाश, सोमदत्त, गुलज़ार, आलोक धन्वा, ज्ञानेन्द्रपति, अल्लामा इकबाल की कविताओं के मंचन कर रंग-जगत को अनुपम सौगातें दी। कविताओं को संयोजित कर उसमें आंगिक, वाचिक, अभिनय के साथ गायन, वादन और नृत्य का समायोजित समावेष किया, जिससे प्रस्तुतीकरण की सुंदरता तो बढ़ी ही। यह हमारे कवियों के प्रति एक ईमानदार संस्कृतिकर्मी का ऐसा प्रयास है जिसके माध्यम से सामान्य जन तक कविताओं की पहुँच हुई, इससे उसकी चेतना के नये आयाम खुलेंगे। कविताओं के मंचन का इतिहास बहुत पुराना नहीं है। इसी तरह काव्य-नाटकों की संख्या भी उंगलियों पर गिने जाने भर की है। नाटकों का समीक्षा शास्त्र तो विकसित हो गया है, किंतु काव्य मंचन का समीक्षा शास्त्र अभी विकसित नहीं हुआ है। सो काव्य-श्रृंखला के इतने नाटकों के मंचन के बाद भी उस पर अपेक्षित चर्चा नहीं हुई है। अरुण पाण्डे के द्वारा मुक्तिबोध की कविताओं पर कंेद्रित ‘तुम निर्भय जो सूर्य गगन में’ एक ऐसी प्रस्तुति है, जिससे विवेचना रंगमंडल ने कविताओं के मंचन का सिलसिला शुरु किया। इसमें मुक्तिबोध के काव्य को दृश्यों में बांधकर उनमें बारी-बारी से जीवन के तीन क्षणों को पिरोकर इसकी संरचना की है, जो अद्भुत है। ऐसी प्रस्तुतियाँ और रचनाएँ बगैर किसी रचनात्मक दबाव के संभव नहीं हैं और यह दबाव अरुण पाण्डे को सदैव सकारात्मक दिशा की ओर लिए जा रहा है।

अभी हाल में ही ‘घासीराम कोतवाल’ के लिए उनकी टीम को ग्रांट मिली है। उसकी अन्य तैयारियों के साथ पगडियाँ बनाना वे शुरु कर चुके हैं। उसका ढाँचा उनके कमरे में कपड़े और गोटे लगने की प्रतीक्षा में है । इतने बरसों तक कई नाटक करने के बाद भी हर नये नाटक की तैयारी के प्रति उनका जोश और उत्साह क़ाबिल-ए-तारीफ़ है। उन्हें देख दूसरे उर्जा लेते हैं। आज जब बाज़ार में हर तरह का बना-बनाया सामान उपलब्ध है, तब भी वे अपने हाथ के बने साजो-सामान को इस्तेमाल कर रहे हैं। ऐसे लोग ही हमारे समाज में इस हुनर को जिं़दा रखे हुए हैं और तभी हम आज भी नाटक देखकर रोमांचित होते हैं क्योंकि वहाँ यथार्थ के साथ कल्पनाशीलता का अद्भुत मेल दिखता है। सहजता दिखती है, कृत्रिमता नहीं। परसाई के इस चेले को हमारा सलाम!

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