सीमा भार्गव से निर्मला डोसी की बातचीत

चौदह जुलाई 2013 की एक यादगार शाम थी। मुंबई महानगर की साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था ‘चौपाल’ की मासिक बैठक उस दिन कविता गुप्ता के घर थी। घर की छत पर रसोई का सारा पसारा फैलाए चूल्हे के पीछे बैठी थी वो, और सामने चटाइयों पर दर्शक जुट गये थे।

पहले संवाद के साथ ही उन्होंने सब को मंत्रबिद्ध कर लिया था। उसके बाद का समय कब, कितना बीता, किसी को भान नहीं रहा। कहानी के साथ वे श्रोताओं को बहाए ले जा रही थीं।निष्णात अभिनय और विचारोत्तेजक विषय के साथ-साथ संवाद अदायगी की पटुता कहानी की एक-एक परत खोल कर, जो खेल रच रही थी वह अद्भुत था। साथ ही देसी घी में भुने जा रहे प्याज की महक फिर कढ़ाई में छोड़े जा रहे साग, मसाले, पनीर की मनभावनी सुगंध लपटें मार रही थीं। दर्शकों के ठहाकें गूँज रहे थे, तो मारक प्रसंग पर मौन भी पसर रहा था। भीष्म साहनी की विख्यात कहानी ‘साग मीट’ की रूह में उतर जाने वाली सिद्धहस्त कलाकार सीमा भार्गव पाहवा की एकल नाट्य प्रस्तुति अद्भुत थी और अनूठी भी।

इससे कई वर्ष पहले चौपाल में ही एक बार और उन्हें सुनने का अवसर मिला था। तब ‘चौपाल’ सुनीता बुद्धिराजा के घर जमी थी। ‘दुनिया की औरत बनाम औरत की दुनिया’ जैसे गूढ़ विषय पर गर्मागर्म बहस से उनकी भव्य बैठक का तापमान खासा बढ़ गया था। औरतों के दुःख-दर्द पर अलापा जाने वाला घिसा-पिटा राग नहीं था वहाँ, जो कितना ही सच्चा हो, किंतु अब किसी की संवेदनाओं को छूता ही नहीं है। दुनिया भर की औरतों के साथ क्या हो रहा है और उस पर क्या लिखा जा रहा है, इस पर गंभीर विमर्श था। ऐसे नंगे, खारे, सच्चे सच की परतें खोली जा रही थीं कि सभी के सिर झुके थे, लोग पहलू बदल रहे थे और रग-रग झनझना रही थी। संचालन मशहूर लेखिका सुधा अरोड़ा के हाथ में था। मध्यांतर से पूर्व सुधा जी की ही दो कहानियों का पाठ हुआ। विख्यात अभिनेता राजेन्द्र गुप्ता ने ‘रहोगी तुम वही की वही’ पढ़ी। गुप्ता जी के पास शब्दों को भावों तथा अदायगी के साथ प्रस्तुत करने का विमुग्ध करने वाला हुनर है। उसके जवाब में सीमा भार्गव पाहवा ने पढ़ी ‘सत्ता संवाद’। रंगमंच के मंजे हुए दोनों कलाकारों का वह प्रस्तुतीकरण नहले पर दहले जैसा था। दर्शकों के ठहाकों ने थोड़ी देर पहले बढ़े तापमान को सम पर ला छोड़ा।

सीमा जी के साथ रंगकर्म पर बात करें, तो समय कब बीत जाता है पता तक नहीं चलता। उनके पास अपने अनुभवों-संस्मरणों की बेशकीमती अशर्फियों की गठरी भरी है और क्यों न हो, बचपन से लेकर अब तक का पूरा जीवन इसमें लगा है। वे कोई शौकिया कलाकार नहीं बनी हैं। उनकी माँ सरोज भार्गव पहली महिला रेडियो कलाकार थीं। रंगमंच में वे सीमा जी के जन्म से पहले स्थापित हो चुकी थीं। उनकी रगों में अभिनय लहू के साथ दौड़ता है तो इसमें आश्चर्य क्या! वे कहती हैं कि उनका पूरा बचपन रेडियो स्टेशन तथा दूरदर्शन टॉवर की सीढ़ियाँ चढ़ते-उतरते बीता है। रंगमंच की रिहर्सलों के बीच मंच पर खेलते-कूदते भी, और तीनों ही क्षेत्रों के उस वक्त के तमाम कलाकारों की गोदी में वे खेली हैं तथा जिन्होंने अक्सर उन्हें होमवर्क करवाने में मदद भी की है। तब से लेकर अब तक के उनके दुर्लभ अनुभवों से समृद्ध हुआ व्यक्तित्व अपनी कहानी खुद ही कह देता है। उन्हें तो यही होना था, जो वे हैं। इसके अतिरिक्त दूसरे किसी क्षेत्र का विकल्प चुनने की ज़रूरत ही नहीं थी। वे रंगकर्म करने के लिए ही जन्मी हैं। अब तक ढेर सारे नाटक किये हैं। उतनी ही योग्यता से रेडियो, टेलीविजन तथा फिल्में भी की हैं अर्थात् अभिनय का कोई क्षेत्र उनसे अजाना नहीं है। हाँ, रंगमंच उनका पहला प्यार है यह तय है।

पहले वे दिल्ली में थीं। वहाँ संभव ग्रुप से जुड़ी थीं, जिसके ज़्यादातर लोग एनएसडी के पासआउट थे। ‘संभव’ वर्ष भर में सोलह नाटक करता था। फिर उन्होंने एनएसडी रेपर्टरी कंपनी, सिद्धांत रेपर्टरी कंपनी तथा पी.जी. रेपर्टरी कंपनी के साथ तीन-तीन, चार-चार वर्ष काम किया। मुंबई आने के बाद 10-12 वर्षों में नसीर साहब के साथ मोटली ग्रुप के साथ जुड़ी रहीं। यद्यपि उन्होंने अभिनय की कोई औपचारिक डिग्री-डिप्लोमा नहीं लिया है, लेकिन बचपन से ही अपने चारों तरफ यही होते देखा है, फिर विरासत में अभिनय कला के बीज पाए थे। ढेर सारे किरदार करने के अवसर लगातार मिलते गए और उनका काम निखरता गया, मंजता गया।

सीमा जी का पहला नाटक पी.एल.देशपांडे के निर्देशन में खेला गया, जिसका नाम था ‘समझौता’ और वे इसके मुख्य किरदार में थीं। उसके बाद बिना रूके नाटक करती रहीं। सन् 1980 में संतोष डे के निर्देशन में एक नाटक मंचित हुआ ‘आग ही आग’, जिसमें उन्होंने आठ अलग-अलग किरदार किये तथा उसके लिए साहित्य अकादमी का श्रेष्ठ अभिनेत्री पुरस्कार भी मिला। अब तक जो काम मिला, किये जा रही थीं, इसके बाद रंगकर्म को गंभीरता से लेना षुरु किया। पुरस्कार पाकर जिम्मेदारी का बोध हुआ कि जो करना है, अपनी तरफ से षत-प्रतिशत देना है। रंगकर्म का जुनून-सा तारी था। ‘संभव’ तथा श्रीराम सेंटर से बहुत यादगार किरदार किये। वे अपने आप को बड़ी किस्मतवाली मानती हैं कि उन्हें सभी बहुप्रशंसित यादगार नाटकों तथा नामी निर्देशकों के साथ काम करने का अवसर मिला। ‘आषाढ़ का एक दिन’, ‘खामोश! अदालत जारी है’, ‘सखाराम बाइंडर’, ‘अनारो’ इत्यादि अनेक नाम हैं जो रंगकर्म के इतिहास में दर्ज़ हो चुके हैं।

मंजुल भगत के ‘अनारो’ के सौ से ज़्यादा शो भारत भर में हो चुके हैं। इसी किरदार से उन्हें दूसरी बार साहित्य अकादमी अवॉर्ड मिला। यह सन् 84 की बात है। सन् 1994 में वे दिल्ली से मुंबई आ जाती हैं। रंगकर्म बदस्तूर जारी है। पिछले दिनों इस्मत चुगताई की कहानी पर नसीर साहब के साथ ‘कमबख़्त बिल्कुल औरत’ किया और उस नाटक के अनुभवों, अहसासों को वे अपनी अनमोल धरोहर मानती हैं। इस्मत आपा की लाजवाब कहानी हो और नसीर साहब जैसे कद्दावर कलाकार का साथ, तो फिर बात विलक्षण होनी ही थी, सो हुई। दर्शकों ने उस नाटक को बहुत पसंद किया। मंजुल भगत की कहानी ‘अनारो’ के अनुभव भी बड़े कमाल के रहे। उस किरदार से बाहर आना सीमा के लिए मुश्किल हो गया था। मंजुल जी ने उस नाटक के एक षो में बस्ती की तमाम महरियों को बुलाया। अनारो की कहानी भी एक महरी की ही है। उन महरियों को पहले तो समझ ही नहीं आया कि यहाँ हो क्या रहा है! नाटक समाप्त होने पर वे उनके पास आईं और अनेक तरह के प्रश्न पूछने लगी। तुम कहाँ से हो? किसके यहाँ काम करती हो? वे भी हँसती रहीं, मज़े लेती रहीं। अच्छा खासा सेशन हो गया। वे बताती हैं कि ‘अनारो’ के बाद वे चाह कर भी अपनी घरेलू बाई के साथ अब कभी रूखाई से पेश नहीं आ सकतीं।

सन् 84 में मनोहर श्याम जोशी के धारावाहिक ‘हम लोग’ का प्रस्ताव आता है। उस समय वे श्रीराम सेंटर रेपर्टरी में 650/- महीने की नौकरी करती थीं। हालाँकि दूरदर्शन वाले एक दिन के 500/- देते थे। हफ्ते में तीन हजार। इतने रूपये उनके पर्स में नहीं समा रहे थे। फिर भी वे अपने रंगकर्म की ओर दौड़ती रहीं। धारावाहिक की वजह से नौकरी न छूट जाए, इसी डर में रहीं।

अच्छे रंगकर्म के लिए सबसे ज़रूरी बात है कथानक का सशक्त और सार्थक होना, कि जो कहा जा रहा है, वह विषय दर्शकों को छू पाएगा कि नहीं। पहले की कहानियों में बहुत विस्तार होता था। इतिहास व पुराणों के संदर्भ होने के कारण उनमें गहराई आ जाती थी। नाटक के लिए उस कहानी से कुछ भाग ही चुना जाता था। आजकल कोई घटना घटी तो उस पर कहानी लिखने का प्रयास किया जाता है। जिसमें गहराई ज़रा भी नहीं रहती, न विस्तार होता है। खींच-खाँचकर विस्तार देने से बात बन ही नहीं पाती। वह स्क्रिप्ट को कमज़ोर व उबाऊ कर देती है। पहले के लेखन में बड़ा कैनवास, बड़ी सोच तथा जीवंत विषय हुआ करते थे। फिर किरदार भी ढेर सारे, जिन्हें एक दिलचस्प कथा में बड़े सलीके से पिरोया जाता था। जीवन के सब रंग एक नाटक में दिख जाते थे।

‘हम लोग’ की बड़की को लोग इतने वर्ष गुजर जाने के बाद भी नहीं भूले हैं। तीखे नैन-नक्श, साँवला सलोना चेहरा, छरहरी कदकाठी पर पहनी गई सूती साड़ी और कंधों पर लटका झोला, समाज सेविका का वह रूप, जिसको करने के बाद सीमा के पास उसी तरह के किरदारों को करने के अनेक प्रस्ताव आए पर उन्होंने तीन वर्ष कोई काम दूरदर्शन के लिए नहीं किया। इसी क्षेत्र की तमाम तरह की उठापटक देखते हुए बड़ी होती, वे जान चुकी थीं कि किसी कलाकार पर एक बार जो ठप्पा लग जाता है, अक्सर वह वही बना रह जाता है। उनकी भी वही स्थिति हो सकती थी, जो नितीश भारद्वाज की हुई। वे कृष्ण ही बने रह गए और अरूण गोविल राम बने घूम रहे हैं। यह निर्णय ले पाना उनके लिए इसलिए संभव हुआ क्योंकि वे अपने आसपास यही सब देख रही थीं, समझ रही थीं और सीख भी रही थीं।

सीमा जी बताती हैं कि ‘‘पहले टेलीविजन का भी लाइव टेलीकास्ट हुआ करता था। अर्थात उसे करने में भी रंगकर्म जितनी ही मेहनत होती थी। सभी डायलॉग याद होने ज़रूरी होते, कोई रिकॉर्डिंग नहीं हुआ करती थी और बहुत सारी रिहर्सल हुआ करती थी। कैमरा रिहर्सल अलग से होती थी। कैमरा हमारे पास नहीं आता था, हमें कैमरे के पास जाना पड़ता था। नीचे फर्श पर चॉक से लाइनें खींच कर कलाकार की ब्लॉकिंग की जाती थी। उनके हाथ में डायलॉग की षीट के अलावा एक टेक्निकल शीट भी रहती थी, जिसमें दर्ज़ रहता था कि नम्बर एक ट्रेक पर चार कदम चलकर फलाना डायलॉग बोलना है। फिर ट्रेक नम्बर दो पर जाकर कैमरा फेस करना है। तीन नम्बर पर जाकर शॉट देना है अर्थात पूरा गणित और रेखा गणित का खेल था। आज की तरह आसान काम नहीं था। उन्होंने तो इन्हीं लाइनों से पढ़ना सीखा था। दर्शकों को भी बकायदा स्टुडियो में बैठाया जाता था ताकि कलाकारों को अहसास होता रहे कि कोई उन्हें देख रहा है। वे बताती हैं कि यह बात तब की है जब उन्हें पेन्सिल पकड़नी भी नहीं आती थी। स्टेज से ही लाइनों को फॉलो करना, बोलना, अभिनय करना सब कुछ सीखती चली गईं – कितना सीख पाई हूँ, इसका फैसला तो दर्शक ही जानें। वे जब 7-8 वर्ष की थीं तभी दूरदर्शन में उनकी माँ ने उनका ऑडिशन करवा दिया था। उस वक्त बाल कलाकार के बतौर भी खूब काम किया। यहाँ तक कि बाल कटा कर अनेक बार लड़के के किरदार भी किये।

सीढ़ी-दर-सीढ़ी हर क्षेत्र के परिवर्तन की वे साक्षी रही हैं। रंगकर्म के लिए उनका मानना है कि अब अच्छे नाटक नहीं लिखे जा रहे हैं या फिर समय की कमी के कारण वे उतना नहीं पढ़ पा रही हैं। संपर्क में नहीं हैं। अच्छे रंगकर्म के लिए सबसे ज़रूरी बात है कथानक का सशक्त और सार्थक होना, कि जो कहा जा रहा है, वह विषय दर्शकों को छू पाएगा कि नहीं। पहले की कहानियों में बहुत विस्तार होता था। इतिहास व पुराणों के संदर्भ होने के कारण उनमें गहराई आ जाती थी। नाटक के लिए उस कहानी से कुछ भाग ही चुना जाता था। आजकल कोई घटना घटी तो उस पर कहानी लिखने का प्रयास किया जाता है। जिसमें गहराई ज़रा भी नहीं रहती, न विस्तार होता है। खींच-खाँचकर विस्तार देने से बात बन ही नहीं पाती। वह स्क्रिप्ट को कमज़ोर व उबाऊ कर देती है। पहले के लेखन में बड़ा कैनवास, बड़ी सोच तथा जीवंत विषय हुआ करते थे। फिर किरदार भी ढेर सारे, जिन्हें एक दिलचस्प कथा में बड़े सलीके से पिरोया जाता था। जीवन के सब रंग एक नाटक में दिख जाते थे।

वे बताती हैं कि आज हमारे हाथ में स्क्रिप्ट आती है तो कोई बात जब गले नहीं उतरती तो पूछते हैं, भई, यह कलाकार ऐसा क्यों कर रहा है? तो जवाब मिलता है, यह तो पता नहीं बस, आप कर दीजिए या कह दीजिए। कैसे कह दें भाई! कैसे जान डालें उस किरदार में, जब तक खुद हमें ही समझ में न आ जाए। अर्थात डिटेलिंग नहीं होती। सब चीज़ें जल्दी-जल्दी करने का चलन हो गया है। जबकि सीमा जी के अनुसार कलाएँ तभी पकती हैं, जब उनमें समय का पूरा परिपाक होता हो। कहानी में किरदार के विषय में बारीकी से जानना-समझना तो ज़रूरी होता ही है, विषय को भी पूरीतरह आत्मसात करना पड़ता है। यह सब काम चुटकियों में नहीं किये जा सकते। एक बार नहीं, अनेक बार हर सीन के लिए गहरे विमर्श को करना होता है।

वे बड़ी हसरत से आह भरते हुए कहती हैं कि ‘‘आषाढ़ का एक दिन’ तो हमें अब करना था यार, अब ही तो मल्लिका को जीने की लियाक़त आई है। काश, इतनी जल्दी उम्र न बढ़ी होती तो एक बार और मल्लिका बन जाते।’’ वैसे तो अपने सभी नाटक फिर से करना चाहती हैं और बार-बार करना चाहती हैं। बड़े पते की बात कह जाती हैं कि कोई कितना भी बड़ा व मंजा हुआ कलाकार हो और यह दावा करे कि अमुक किरदार तो चुटकियों में करके दिखा दूँ, तो यह सही नहीं होगा क्योंकि जो रोल एक रंगमंच का कलाकार करता है, उसके लिए काफी मानसिक तैयारी करनी पड़ती है। खुद को समझना और बिल्कुल ज़ीरो बनाना पड़ता है। अपने आप को ज़ीरो बनाकर ही हम उस किरदार को ओढ़ सकते हैं। यह काम चुटकियों में कैसे हो सकता है? जब खुद को कोरा कागज़ बना लेंगे, तब उस पर नई इबारत लिख पाएंगे।

वे मानती हैं कि थियेटर में पैसा कभी नहीं रहा। इसके साथ ये भी मानती हैं कि ताउम्र थियेटर वे ही करते हैं जो इसके जुनूनी होते हैं। उन्हें तो पहले पाँच रूपये भी इसमें नहीं मिलते थे। कपड़े तक घर से लाते थे। तब भी रंगकर्म का नशा ऐसा छाया था कि लगातार किये जा रहे थे। परिणाम कभी सोचा नहीं और मकसद उनका कोई रहा नहीं। बस, एक भूख थी रंगकर्म की कि इसके बाद और बढ़िया रोल मिले बस इतना ही सोचते थे। अब लोग यहाँ मकसद लेकर आते हैं कि थियेटर करके फिर फिल्मों में जाना है या ये करना है या वो करना है! ‘‘हमारा कोई मकसद न तब था और न अब है। उस वक्त भी यही सोचते थे और आज भी कि बस ऐसा काम मिले कि मज़ा आ जाए।’’ जीवन में अनेक उतार-चढ़ाव आए। किसके जीवन में नहीं आते पर रंगकर्म के प्रति जुनून में कमी नहीं आई। पैसे के लिए बिक गए तो यह जुनून कम हो जाएगा, यही सोच थी।

सीमा जी का सौभाग्य यह रहा कि उन्होंने एक साथ अनेक क्षेत्रों में काम किया और खूब किया। रेडियो, दूरदर्शन तथा फिल्में और रंगकर्म सर्वोपरि हमेशा रहा। जिनते किरदार हो सकते हैं, वे सभी जिये हैं और उन्हें आधा-अधूरा नहीं, पूरा-पूरा जिया है। पैसे के बिना ज़िंदगी नहीं चल सकती, इस सच्चाई से कौन मुख मोड़ सकता है लेकिन पैसे के लिए रंगकर्म से कोई समझौता नहीं किया।

उन्होंने अभिनय तो किया ही है, निर्देशन भी किया है। ‘कोंपल’ नाम से अपना एक ग्रुप भी बनाया है। बड़ौदा आर्ट यूनिवर्सिटी से अभिनय में स्नातक होकर आए उनके बेटे मयंक तथा बेटी अनुप्रीति इससे जुड़े हैं। बेटे ने एक नाटक भी तैयार किया है, 14 फरवरी 2015 को ‘काला घोड़ा’ में उसका शो हुआ है। पहले उन्होंने कमलेश्वर की कहानी ‘बयान’ तथा भीष्म साहनी की कहानी ‘साग मीट’ निर्देशित की है, जिसे लोगों ने खूब पसंद किया है। सन् 81 में ‘बयान’ व ‘साग मीट’ देवेन्द्र राज अंकुर जी के निर्देशन में मंचित की गई थी। इस वक्त इप्टा के उत्सव में विजयदान देथा, निर्मल वर्मा, कमलेश्वर, भीष्म साहनी इत्यादि कई लेखकों की रचनाओं पर ‘कहानियाँ ही कहानियाँ’ नाटक हुए थे। तब ‘बयान’ में सीमा जी ने नहीं, विभा नामक अभिनेत्री ने नायिका का किरदार किया था। बाद में उसी कहानी को अंकुर जी की सलाह पर सीमा जी दूसरी तरह से निर्देशित किया। ‘साग मीट’ में अंकुर जी ने उन्हें व्हील चेयर पर बैठा कर दोपहर में पड़ोसन के सामने कहानी कहलवाई थी। सीमा जी ने इतने वर्षों बाद उसे दूसरी तरह से पेश किया। इसका ख्याल उन्हें अनायास आया। वे जब घर में अकेली होती हैं तो खाना बनाते हुए, घर के दूसरे काम करते हुए अपने डायलॉग याद करती हैं या नाटक की रिहर्सल करती हैं। तभी ख्याल आया कि क्यों न ऐसा ही मंच पर किया जाए। मन में ज़रा सी शंकित भी थीं कि हो पाएगा या नहीं, क्योंकि पच्चीस मिनट में कहानी पूरी होती है, उतनी ही देर में खाना भी पक जाए, यह ज़रूरी नहीं था। किंतु अभ्यास करने से हो गया। पहले दोस्तों के ग्रुप बुला कर किया गया। 3-4 बार करने पर सभी ने बहुत पसंद किया। अब तो ‘साग मीट’ के 45 शो हो चुके हैं। मुंबई, दिल्ली तथा भोपाल में हुए हैं। इसकी मांग बहुत है। दोस्तों के, परिचितों के फोन आते रहते हैं – ‘‘भई सीमा, वो ‘साग मीट’ कब कर रही हो? सर्दियों के दिन आ गये, उसका मज़ा तो इसी मौसम में है।’’ बहुत जल्दी-जल्दी करना संभव नहीं होता, किंतु लोगों ने पसंद किया यह बड़ी बात है। पाकिस्तान में भी एक शो दोस्तों के लिए किया। उसके टिकट नहीं रखे थे। यह नसीर साहब का सुझाव था। ‘साग मीट’ की विशेष बात यह भी है कि पच्चीस मिनट में नाटक पूरा होता है, साथ ही बन जाता है उनका साग भी, जिसकी महक से दर्शकों के नथुने फड़कने लगते हैं और दर्शक न केवल नाटक का बल्कि उनके हाथें बने उस साग का लुत्फ भी खूब उठाते हैं।

सीमा जी से उनके नाटक बनाने की प्रक्रिया पर बात करें तो कई ऐसी बातें सुनने को मिलती है जो इस क्षेत्र में वर्षों तपा-खपा कलाकार के अनुभव का निचोड़ होता है। वे कहती हैं कि मोटे तौर पर तो पैटर्न के अनुसार ही काम होता है। पहले लोग इकट्ठे होते हैं, स्क्रिप्ट पढ़ी जाती है, उस पर चर्चा होती है, पात्रों का चयन होता है, फिर रिहर्सल होती है। कहानी हर हाल में दमदार चाहिए ही। फिर उस पर विमर्श भी गहरा किया जाता है। उनका मानना है कि उस कहानी के पीछे की कहानी को भी जानना-समझना और कर लेना ज़रूरी होता है। कहानी के पीछे की कहानी का अर्थ यह है कि जो पहला दृश्य किया जाता है पर्दा उठते ही, उससे पहले क्या हुआ होगा! यह होती है कहानी के पीछे की कहानी। यह जान लें तो यकीनन नाटक के पहले दृश्य की ओपनिंग में ही सही सुर पकड़ा जा सकता है। जैसे फॉर्मल सी रिहर्सल करते-करते पहले पीछे की बात सोच लें कि यह किरदार ऐसा है तो क्यों है, तो उस काम में जान आ जाती है। एक दृश्य के बीच दूसरे दृश्य की कहानी भी जान लें तो काम ज़्यादा सही व सशक्त हो जाता है। पर्दे के पीछे की उस कहानी को जानना ही नहीं बल्कि रिहर्सल के वक्त उसके सीन भी कर लिए जाएँ तो जो असली सीन मंच पर होने वाला है, वह अधिक जीवंत व स्वाभाविक बन जाएगा। किसी किरदार को करने का प्रोसेस भी इंसान बनने के प्रोसेस जैसा ही होता है। बस एक नाटक के लिए 15-20 दिन मिलते हैं, जबकि उसमें पूरा जीवन लग जाता है। इस क्षेत्र में कोई शॉर्टकट नहीं है।

आजकल हम देखते हैं खूबसूरत चेहरा व आकर्षक देहयष्टि के बूते पर थोक में लोग आ जाते हैं। सोचते हैं अभिनय का क्या… वो तो कर ही लेंगे। ग्लिसरीन लगा कर रो लेंगे। जबकि वे मानती हैं कि रंगकर्म ऐसा क्षेत्र है जिसमें सिर्फ सीखने के लिए एक पूरा जीवन कम पड़ जाता है।

सीमा जी ने अपने जीवन काल के खुशगवार पलों पर बात करते हुए बताया कि ‘‘मेरे लिए सबसे खुशगवार समय हमेशा वही रहा, जब मेरे पास ढेर सारा मनचाहा काम हो, अच्छे लोगों का साथ हो। 84 का पूरा साल ऐसा ही था। जब ‘बड़की की शादी के एपिसोड के ठीक दूसरे दिन सुबह उठते ही अखबार खोलती हैं तो मन खुश हो जाता है। उस दिन के अखबार में उनके दो प्रिय लोग, जिनमें एक सुधीर धर ने उन पर कार्टून बनाया था और दूसरे शरद जोशी ने पूरा लेख ही लिख दिया था। वे उसे बड़ी उपलब्धि मानती हैं।

पंडवानी कलाकार तीजन बाई की वे गहरी प्रशंसक हैं। स्टार प्लस वाले फोन करते हैं तीजन का रोल करने के लिए और ‘लाखों में एक’ फिल्म में सीमा तीजन बनती हैं। तीजन से मुंबई में मुलाकात, बातचीत सब कुछ स्मृति-पृष्ठों में सँजोकर रख छोड़ा है उन्होंने। नसीर साहब की वे बहुत इज़्ज़त करती हैं और बताती हैं कि उनसे बड़ा गुरु कोई नहीं हो सकता। 10-12 वर्ष पहले ‘कथाकोलाज़’ के लिए उन्होंने सीमा जी को चुना। उनके लिए यह सुयोग किसी ऑस्कर अवॉर्ड जैसा अनमोल था। उनके लिए वे कहती हैं कि वे बड़े गुणी कलाकार हैं। मार्गदर्शक तो उन जैसा कोई मिला ही नहीं। ‘इस्तम आपा के नाम’ के अनगिनत शो हो चुके पर वे आज भी हर बार उसे देखते हैं, खूब हँसते हैं, अपना निर्देश भी देते हैं। शाबासी देते हैं। यह उनका बड़प्पन है। सहकर्मी कुछ कहेंतो उसे ध्यान से सुनते हैं, सही लगे तो अमल भी करते हैं। ‘‘उन्हीं की वजह से हम चार्ज रहते हैं, मोटिवेट होते हैं। बाकी तो क्या है जी, इस जगह पहुँच कर सोच लें कि बहुत हो गया, इससे अच्छा और क्या होगा! बस, कब वह ठंडा पड़ने लगता है, खुद उसे पता तक नहीं लगता।’’ सीमा इस बात के लिए सतर्क रहती हैं। नया क्या हो रहा है, क्या लिखा जा रहा है, कहाँ नाट्य उत्सव हो रहे हैं, सब पर नज़र रखती हैं। समय कम रहता है फिर भी युवा लोगों से जुड़ी रहती हैं। वे कहती हैं, यह बेहद ज़रूरी है। उनसे काफी कुछ सीखा जा सकता है, फिर काम उन्हीं के साथ करना है। आज की पीढ़ी बहुत तेज़ व तकनीकी ज्ञान से पूर्ण है।

इसी वर्ष अगस्त में भीष्म साहनी की सौंवी जयन्ती है। वे उन पर एनसीपीए में समारोह करना चाहती हैं। उनकी छैः कहानियाँ चुनी हैं, विमर्श चल रहा है। शरद जोशी की एक कहानी का नाट्य रूपान्तर भी किया है। अपने नाट्य ग्रुप के लिए निर्देशन का काम तो करना ही है। वे फिर कहती हैं कि यह क्षेत्र ऐसा है जिसमें जितना समय देंगे, उतना ही काम पकेगा, निखरेगा। लेखक तो सिर्फ कहानी देता है, यह कलाकार पर निर्भर करता है कि वह उसकी कितनी परतें खोल पाता है।

पिछले वर्ष सीमा जी की एक फिल्म आई थी ‘आँखों देखी’। उसमें उनका किरदार एक चिड़चिड़ी, गुस्सैल माँ का है। पहले वह माँ ऐसी तो नहीं रही होगी, ऐसी हो गई, तो क्यों हो गई होगी! डनके लिए किरदार करने से पहले यह समझना ज़रूरी था। जिस औरत ने अपना पूरा जीवन घर, पति व बच्चों को बनाने में खपा दिया, किंतु नहीं गढ़ पाई उन्हें मनचाहे आदर्श स्वरूप में; तो उसकी जो पराजय है, वह उसके स्वभाव, भंगिमा, बोल, व्यवहार में झाँकने लगती है। उनके अनुसार यही वो बात है जिसे वे पर्दे के पीछे की कहानी या सीन के पहले का सीन कहती हैं, जिसका ज़िक्र पहले भी आया है। तो उसको जाने बिना किरदार में जान आ नहीं सकती। बड़े विश्वास के साथ वे जोड़ती हैं – ‘‘यकीन मानें, जो एक बार कैरेक्टर पकड़ में आ जाता है तो मैदान आपके हाथ में होता है फिर तो काम करने में बड़ा आनंद आने लगता है।

दो बच्चों, पति व घर-परिवार की पूरी जिम्मेदारी संभालते हुए निरंतर काम जारी रख पाना इसलिए ही संभव हुआ होगा क्योंकि उनकी परवरिश भी उसी तरह हुई। अपनी माँ को उन्होंने यही करते हुए देखा था। घर प्राथमिकता की फेहरिस्त में सबसे ऊपर है, फिर रंगमंच, तब फिल्में, टी.वी., रेडियो, वर्कशॉप, अपना ग्रुप ‘कोंपल’, पढ़ना, यात्राएँ वगैरह वगैरह…। अर्थात व्यस्तता का कोई अंत नहीं है।

सीमा जी ने अपनी अब तक की अभिनय-यात्रा के निचोड़ में कुछ सूत्र सीखे हैं, जो सफलता के मूलमंत्र भी हो सकते हैं। उसे समझने के लिए ज़रा सी गंभीरता की ज़रूरत है। वे कहती हैं, अभिनय के समय एक व्यक्ति के अंदर तीन लोग एक साथ होते हैं – एक व्यक्ति के तीन रूप, एक किरदार जो उसे करना है, दूसरा उसके अंदर का कलाकार और तीसरा वह खुद, जो वह है। करना यह होता है कि अपने कलाकार पर निभाए जाने वाले किरदार को ओढ़ना है किंतु खुद को एक कोने में बिल्कुल मौन खड़े रखना है दर्शक की तरह। एक्टर सीमा अपने किरदार का टेन्शन जितना चाहे ले, किंतु स्वयं सीमा पर किसी भी चीज़ का असर न हो। वे यह भी कहती हैं कि ‘‘यह फार्मूला अपनाना उतना आसान भी नहीं है। हमने भी इस मंत्र को समझा है और उसे जीवन में उतारने की पूरी कोशिश में लगे हैं, अभी पूरी तरह उतार नहीं पाए हैं। एक ही समय में एक को अलग रखना है और दूसरे को अंदर डालना है।’’

विजय तेंदुलकर का ‘खामोश! अदालत जारी है’ नाटक के मंचन के दौरान प्रेक्षागृह में गंभीर बात के बीच जब एक दर्शक की हँसी गूँजी तो अभिनेत्री सीमा अपने किरदार से बाहर आ गई और सीमा बन कर उस दर्शक को मंच पर खींच लाई। जबकि यह नहीं होना चाहिए था। वह मेरे सबक लेने की घटना थी, सीखने के क्षण थे। थियेटर करते हुए ‘प्रेजेन्स ऑफ माइंड’ रहना भी ज़रूरी होता है। अर्थात एक्टर सीमा तथा जो किरदार किया जा रहा है, उस पर नज़र रखना, उसे निर्देश देना किंतु खुद बीच में नहीं कूद पड़ना होता है। इस बात को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने ‘कथाकोलाज़’ के मंचन की घटना का ज़िक्र किया।

मंच पर टेबिल पर एक कुप्पी रखी है। बताया गया है कि उसमें हमेशा तेल भरा रहता है। नसीर साहब अपने संवाद बोल कर जा चुके हैं। अब मैं बोलती हूँ और अचानक मेरे हाथ से वो कुप्पी गिर जाती है, जिसमें वास्तव में कोई तेल नहीं होता। किनारे खड़ी सीमा ‘अर्थात मैं खुद’ मेरे एक्टर व किरदार को तुरंत निर्देश देती है कि ‘‘इसे संभालो’’ और किरदार नीचे बैठ कर हाथ से उस काल्पनिक तेल को समेटने लगती है या समेटने का अभिनय करने लगती है। इसे ‘प्रेजेन्स ऑफ माइंड’ कहते हैं। यहाँ किनारे खड़ी खुद सीमा मौन न रहकर कुप्पी गिरने पर चौंक सकती थी, उसके मुख से अरे! भी निकल पड़ता तो सारा गुड़-गोबर हो जाता। यह सब कुछ नाटक का हिस्सा नहीं था, अचानक घटा था। उसे इसतरह संभाल लेना था कि नाटक बाधित न हो।

अब ‘साग मीट’ की बात करें तो एक्टर सीमा व किरदार दोनों अभिनय करने व संवाद बोलने में उलझे पड़े हैं, जबकि खुद सीमा को साग बनाते हुए नज़र रखनी है कि प्याज बराबर भुने जाएँ, नमक-मिर्च भी बराबर डाली जाए क्योंकि उसी साग को बाद में लोगों को खाना भी है। तो ये बारीक चीज़ें हैं, जिन्हें मद्देनज़र रखना ज़रूरी होता है।

सीमा जी ने विरासत में अभिनय के बीज पाए और उसे पर्याप्त हवा, पानी, खाद मिलता रहा। 1970 में मन्नू भंडारी का ‘आपका बंटी’ किया तो वे माइक तक नहीं पहुँच पा रही थीं। इप्टा का ‘अपने अपने बच्चे’ तथा भीष्म साहनी की कहानियों में हमेशा बाल कलाकार बनती रहीं। दूरदर्शन पर पंद्रह वर्ष की उम्र में चेतन बग्गा के धारावाहिक ‘सबकी इज़्ज़त’ में हिरोइन बन गईं। साड़ी पहनेंगी, गहने पहनेंगी, लिपस्टिक लगाने मिलेगी, यही सोच-सोच कर इठला रही थी किंतु जब हीरो से रोमांस करना पड़ा तो होश फाख़्ता हो गए, पसीने छूट गए। इस तरह के अनेक खट्टे-मीठे वाकयात घटते रहे। वे कहती हैं कि मैं अपने काम से पूरी तरह संतुष्ट हूँ। उम्र ज़रूर बढ़ी है किंतु अपने भीतर आज भी उतना ही जोश, ऊर्जा व उत्साह पाती हूँ। हर जन्म में मैं यही बनना चाहती हूँ, जो मैं हूँ।

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